कक्षा - 11 कबीर



कक्षा 11 (आरोह) - पद्य खंड: कबीर

(पद - 1: हम तो एक-एक करि जांनां...)

NCERT प्रश्न-उत्तर


पद के साथ

प्रश्न 1. कबीर की दृष्टि में ईश्वर एक है। इसके समर्थन में उन्होंने क्या-क्या तर्क दिए हैं?

उत्तर: कबीर की दृष्टि में ईश्वर एक है। वे अपने इस मत (एकेश्वरवाद) के समर्थन में निम्नलिखित तर्क देते हैं:

  1. एक ही पवन और पानी: कबीर कहते हैं कि पूरे संसार में एक ही हवा बहती है और एक ही पानी है। यह प्रकृति की एकता ईश्वर की एकता का प्रमाण है।
    (पद से पंक्ति: एकै पवन एक ही पानी...)

  2. एक ही ज्योति: सभी मनुष्यों के अंदर एक ही परमात्मा की ज्योति (आत्मा) व्याप्त है, भले ही उनके बाहरी रूप अलग-अलग हों।
    (पद से पंक्ति: एकै जोति समानां।)

  3. कुम्हार का उदाहरण: जिस प्रकार एक ही कुम्हार एक ही मिट्टी से तरह-तरह के बर्तन बनाता है, उसी प्रकार ईश्वर ने भी एक ही तत्व (मिट्टी) से सभी प्राणियों का निर्माण किया है।
    (पद से पंक्ति: एकै खाक गढ़े सब भांडै, एकै कोंहरा सांनां।)

  4. बढ़ई का उदाहरण: जिस तरह बढ़ई लकड़ी को तो काट सकता है, लेकिन उसके अंदर समाई हुई आग को नहीं काट सकता, उसी प्रकार मनुष्य का शरीर नश्वर है, पर उसके भीतर की आत्मा (परमात्मा का अंश) अमर है, जिसे कोई नष्ट नहीं कर सकता।
    (पद से पंक्ति: जैसे बाढ़ी काष्ट ही काटै, अगिनि न काटै कोई।)

इन तर्कों के माध्यम से कबीर यह सिद्ध करते हैं कि सृष्टि के कण-कण में वही एक परमात्मा विद्यमान है।

प्रश्न 2. मानव शरीर का निर्माण किन पंच तत्वों से हुआ है?

उत्तर: कबीर के पद और प्रचलित मान्यताओं के अनुसार, मानव शरीर का निर्माण पाँच तत्वों से हुआ है। ये पंच तत्व हैं:

  1. पृथ्वी (मिट्टी)

  2. जल (पानी)

  3. अग्नि (आग)

  4. वायु (हवा)

  5. आकाश

कबीरदास ने अपने पद में सीधे तौर पर इन पाँचों का नाम नहीं लिया है, लेकिन "एकै खाक" (एक ही मिट्टी) कहकर वे इसी दार्शनिक मान्यता की ओर संकेत करते हैं।

प्रश्न 3. 'जैसे बाढ़ी काष्ट ही काटै, अगिनि न काटै कोई।'
सब घटि अंतरि तूही व्यापक, धरै सरूपै सोई॥'
इसके आधार पर बताइए कि कबीर की दृष्टि में ईश्वर का क्या स्वरूप है?

उत्तर: इन पंक्तियों के आधार पर कबीर की दृष्टि में ईश्वर का स्वरूप इस प्रकार है:

  1. अविनाशी और अमर: ईश्वर अविनाशी है। जैसे बढ़ई लकड़ी को काट सकता है पर उसकी अग्नि को नहीं, वैसे ही शरीर नष्ट हो सकता है पर उसके अंदर की आत्मा (ईश्वर का अंश) को नष्ट नहीं किया जा सकता।

  2. सर्वव्यापक: ईश्वर कण-कण में व्याप्त है। वह सभी प्राणियों के हृदय ('घट') में निवास करता है।

  3. एक और अरूप: ईश्वर एक ही है, लेकिन वह संसार में अलग-अलग रूपों में दिखाई देता है। जैसे एक ही आत्मा अलग-अलग शरीरों में वास करती है, वैसे ही एक ही ईश्वर अलग-अलग रूपों में प्रकट होता है।

अतः, कबीर की दृष्टि में ईश्वर अजर, अमर, अविनाशी, सर्वव्यापक और एक है, जो हर रूप में विद्यमान है।

प्रश्न 4. कबीर ने अपने को 'दीवाना' क्यों कहा है?

उत्तर: यहाँ 'दीवाना' का अर्थ है - पागल, किसी के प्रेम में डूबा हुआ या मस्त। कबीर ने अपने को 'दीवाना' इसलिए कहा है क्योंकि:

  1. ईश्वर के प्रति सच्ची लगन: वे ईश्वर के सच्चे स्वरूप को पहचान चुके हैं और उनकी भक्ति में पूरी तरह डूब गए हैं। सांसारिक मोह-माया, आडंबर और भेदभाव से वे ऊपर उठ चुके हैं।

  2. निर्भयता: जब व्यक्ति ईश्वर के सत्य को जान लेता है, तो वह निर्भय हो जाता है। उसे समाज, लोक-लाज या किसी अन्य चीज का डर नहीं रहता। कबीर भी अब निर्भय हो गए हैं।
    (पद से पंक्ति: निरभै भया, कछू नहिं ब्यापै, कहै कबीर दिवाना।)

  3. सांसारिक सोच से अलग: उनकी बातें और विचार आम सांसारिक लोगों से अलग हैं। वे बाहरी आडंबरों का खंडन करते हैं और ईश्वर को एक मानते हैं। सांसारिक लोग उन्हें समझ नहीं पाते और पागल कहते हैं। कबीर इस 'पागलपन' या 'दीवानेपन' को गर्व से स्वीकार करते हैं क्योंकि यह ईश्वर के प्रति उनके सच्चे प्रेम का प्रतीक है।


पद के आस-पास

प्रश्न 1. कबीर का एकेश्वरवाद और वर्तमान समय के मज़हबी उन्माद पर एक लेख लिखिए।

उत्तर:
कबीर का एकेश्वरवाद और आज का मज़हबी उन्माद

संत कबीरदास 15वीं सदी के एक ऐसे महान समाज सुधारक और कवि थे, जिन्होंने अपनी साखियों और पदों के माध्यम से समाज में व्याप्त आडंबरों, रूढ़ियों और धार्मिक भेदभाव पर कड़ा प्रहार किया। उनका मूल सिद्धांत 'एकेश्वरवाद' था, अर्थात् ईश्वर एक है। उनका मानना था कि राम, रहीम, अल्लाह, ईश्वर सब एक ही शक्ति के अलग-अलग नाम हैं। उन्होंने कहा, "हम तो एक-एक करि जांनां," अर्थात् हमने तो जान लिया है कि ईश्वर एक ही है।

कबीर ने उस समय भी हिंदू-मुसलमान के बीच बढ़ती खाई को पाटने का प्रयास किया। उन्होंने दोनों ही धर्मों के बाहरी कर्मकांडों, जैसे- मूर्ति पूजा, तीर्थ, व्रत, नमाज़, अज़ान आदि पर सवाल उठाए और कहा कि ईश्वर इन सबसे परे, घट-घट में वास करता है।

आज 21वीं सदी में जब हम विज्ञान और तकनीक के युग में जी रहे हैं, तब भी समाज में 'मज़हबी उन्माद' यानी धार्मिक कट्टरता बढ़ती जा रही है। लोग अपने धर्म को श्रेष्ठ और दूसरे के धर्म को हीन समझने की भूल कर रहे हैं। धर्म के नाम पर दंगे, हिंसा और नफ़रत का माहौल बनाया जा रहा है। कबीर ने जिस एकता का संदेश सदियों पहले दिया था, आज हम उससे दूर जा रहे हैं।

आज के समय में कबीर के विचार और भी अधिक प्रासंगिक हो गए हैं। यदि समाज कबीर के एकेश्वरवादी दृष्टिकोण को अपनाए और यह समझे कि पूजा-पद्धतियाँ अलग हो सकती हैं, लेकिन सबका ईश्वर एक ही है, तो यह मज़हबी उन्माद स्वतः ही समाप्त हो सकता है। हमें धार्मिक प्रतीकों और कर्मकांडों से ऊपर उठकर मानवता और प्रेम के धर्म को अपनाना होगा, यही कबीर का सच्चा संदेश है।


आशा है कि ये उत्तर आपकी पढ़ाई में सहायक होंगे।

कक्षा -11 नमक का दारोगा



कक्षा 11 (आरोह) - पाठ 1: नमक का दारोगा

(लेखक: मुंशी प्रेमचंद)

NCERT प्रश्न-उत्तर


पाठ के साथ

प्रश्न 1. कहानी का कौन-सा पात्र आपको सर्वाधिक प्रभावित करता है और क्यों?

उत्तर: कहानी में हमें सबसे अधिक प्रभावित करने वाला पात्र कहानी का नायक, मुंशी वंशीधर है। इसके निम्नलिखित कारण हैं:

  1. ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा: वंशीधर एक अत्यंत ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति है। पिता द्वारा दी गई रिश्वतखोरी की सलाह के बावजूद, वह अपने सिद्धांतों पर अडिग रहता है और ईमानदारी को ही अपना धर्म समझता है।

  2. निर्भीकता और साहस: वह उस समय के सबसे प्रतिष्ठित और प्रभावशाली व्यक्ति पंडित अलोपीदीन को गिरफ्तार करने का साहस दिखाता है। वह जानता है कि इसका परिणाम उसके लिए बुरा हो सकता है, फिर भी वह अपने कर्तव्य से पीछे नहीं हटता।

  3. सिद्धांतों पर अडिग रहना: नौकरी छूट जाने के बाद भी वंशीधर अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं करता। वह जानता है कि उसने जो किया वह सही था, इसलिए उसे किसी बात का पछतावा नहीं होता।

  4. स्वाभिमान: वह एक स्वाभिमानी युवक है जो किसी भी कीमत पर अपने आत्म-सम्मान को बेचना नहीं चाहता।

इन्हीं गुणों के कारण वंशीधर का चरित्र हमें सबसे अधिक प्रभावित करता है, क्योंकि वह आज के समाज के लिए एक आदर्श प्रस्तुत करता है।

प्रश्न 2. 'नमक का दारोगा' कहानी में पंडित अलोपीदीन के व्यक्तित्व के कौन-से दो पहलू (पक्ष) उभरकर आते हैं?

उत्तर: 'नमक का दारोगा' कहानी में पंडित अलोपीदीन के व्यक्तित्व के दो महत्वपूर्ण पहलू सामने आते हैं:

1. नकारात्मक पहलू (भ्रष्ट और धन का पुजारी):
कहानी की शुरुआत में पंडित अलोपीदीन एक भ्रष्ट, चालाक और धन के बल पर कुछ भी कर सकने वाले व्यक्ति के रूप में सामने आते हैं। वह गैर-कानूनी ढंग से नमक का व्यापार करते हैं और मानते हैं कि धन (लक्ष्मी) के आगे दुनिया की हर चीज, यहाँ तक कि न्याय भी झुक जाता है। वह वंशीधर को चालीस हज़ार रुपये तक की रिश्वत देने की कोशिश करते हैं और जब असफल होते हैं, तो अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके अदालत से बरी हो जाते हैं और वंशीधर को नौकरी से निकलवा देते हैं।

2. सकारात्मक पहलू (गुणों का पारखी और प्रशंसक):
कहानी के अंत में अलोपीदीन का एक प्रशंसनीय और सकारात्मक पक्ष उभरकर आता है। वह वंशीधर की ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा से बहुत प्रभावित होते हैं। उनमें बदले की भावना नहीं है, बल्कि वह गुणों के पारखी हैं। वह स्वयं वंशीधर के घर जाते हैं और अपनी गलती स्वीकार करते हुए उन्हें अपनी सारी जायदाद का स्थायी मैनेजर नियुक्त करते हैं। यह उनके व्यक्तित्व के उस पहलू को दिखाता है जो ईमानदारी और चरित्र का सम्मान करना जानता है।

प्रश्न 3. कहानी के लगभग सभी पात्र समाज की किसी-न-किसी सच्चाई को उजागर करते हैं। निम्नलिखित पात्रों के संदर्भ में पाठ से उस अंश को उद्धृत करते हुए बताइए कि ये समाज की किस सच्चाई को उजागर करते हैं -
(क) वृद्ध मुंशी (ख) वक़ील (ग) शहर की भीड़

उत्तर:

(क) वृद्ध मुंशी:
वृद्ध मुंशी समाज के उन लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो व्यावहारिकता और अनुभव के नाम पर भ्रष्टाचार को जीवन का एक हिस्सा मान चुके हैं। वे ईमानदारी जैसे आदर्शों को व्यर्थ समझते हैं।

  • समाज की सच्चाई: समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार और ऊपरी आय को महत्व देना।

  • पाठ का अंश: "बेटा! घर की दुर्दशा देख रहे हो... नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर का मज़ार है। निगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी चाहिए। ऐसा काम ढूँढ़ना जहाँ कुछ ऊपरी आय हो... ऊपरी आय बहता हुआ स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है।"

(ख) वक़ील:
वकील समाज के उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं जो न्याय और सच्चाई के बजाय अपने मुवक्किल के धन को अधिक महत्व देते हैं। उनके लिए न्याय बिकाऊ है।

  • समाज की सच्चाई: न्याय व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार, जहाँ पैसे के बल पर न्याय को खरीदा जा सकता है।

  • पाठ का अंश: "वकीलों ने यह फैसला सुना और उछल पड़े। पंडित अलोपीदीन मुस्कुराते हुए बाहर निकले... जब वंशीधर बाहर निकले तो चारों ओर से उन पर व्यंग्यबाणों की वर्षा होने लगी।" यह अंश दिखाता है कि वकीलों को सत्य की हार और धन की जीत पर खुशी हुई।

(ग) शहर की भीड़:
शहर की भीड़ समाज की उस मानसिकता को उजागर करती है जो तमाशबीन और अस्थिर होती है। वे किसी भी घटना पर तुरंत अपनी प्रतिक्रिया देते हैं, लेकिन उनकी यह प्रतिक्रिया केवल क्षणिक होती है।

  • समाज की सच्चाई: समाज का दोहरा चरित्र, निंदा और प्रशंसा में तुरंत बदल जाना।

  • पाठ का अंश: जब अलोपीदीन पकड़े गए तो "दुनिया सोती थी, पर दुनिया की जीभ जागती थी। सवेरे देखिए तो बालक-वृद्ध सबके मुँह से यही बात सुनाई देती थी। जिसे देखिए, वही पंडितजी के इस व्यवहार पर टीका-टिप्पणी कर रहा था..."। लेकिन जब वे बरी हो गए, तो वही भीड़ शांत हो गई, जो उनके दोहरे चरित्र को दिखाती है।

प्रश्न 4. निम्न पंक्तियों को ध्यान से पढ़िए -
"नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर का मज़ार है। निगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी चाहिए। ऐसा काम ढूँढ़ना जहाँ कुछ ऊपरी आय हो। मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चाँद है, जो एक दिन दिखाई देता है और घटते-घटते लुप्त हो जाता है। ऊपरी आय बहता हुआ स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है। वेतन मनुष्य देता है, इसी से उसमें वृद्धि नहीं होती। ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है, इसी से उसकी बरकत होती है, तुम स्वयं विद्वान हो, तुम्हें क्या समझाऊँ।"
(क) यह किसकी उक्ति है?
(ख) 'मासिक वेतन को पूर्णमासी का चाँद' क्यों कहा गया है?
(ग) क्या आप एक पिता के इस वक्तव्य से सहमत हैं?

उत्तर:
(क) यह उक्ति मुंशी वंशीधर के वृद्ध पिता (वृद्ध मुंशी) की है, जो वे वंशीधर को नौकरी पर जाने से पहले दे रहे हैं।

(ख) 'मासिक वेतन को पूर्णमासी का चाँद' इसलिए कहा गया है क्योंकि जिस तरह पूर्णिमा का चाँद महीने में केवल एक बार पूरा दिखाई देता है और फिर धीरे-धीरे घटते हुए अमावस्या तक गायब हो जाता है, उसी तरह महीने में एक बार मिलने वाला वेतन भी शुरुआती दिनों में पूरा होता है और फिर खर्च होते-होते महीने के अंत तक समाप्त हो जाता है।

(ग) नहीं, हम एक पिता के इस वक्तव्य से बिल्कुल सहमत नहीं हैं। एक पिता का कर्तव्य अपने पुत्र को ईमानदारी और सही रास्ते पर चलने की शिक्षा देना होता है, न कि भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी की। वृद्ध मुंशी का यह कथन समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार को बढ़ावा देता है और नैतिक मूल्यों का पतन करता है। यह एक गैर-जिम्मेदाराना और अनैतिक सलाह है जो किसी भी युवा को गलत रास्ते पर ले जा सकती है।


पाठ के आस-पास

प्रश्न 1. 'नमक का दारोगा' कहानी के कोई दो अन्य शीर्षक बताते हुए उसके आधार को भी स्पष्ट कीजिए।

उत्तर: 'नमक का दारोगा' कहानी के दो अन्य शीर्षक हो सकते हैं:

  1. कर्तव्यनिष्ठा का पुरस्कार: यह शीर्षक इसलिए उपयुक्त है क्योंकि कहानी का मुख्य संदेश यही है कि ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा का फल अंत में मीठा होता है। वंशीधर को अपनी कर्तव्यनिष्ठा के कारण नौकरी गँवानी पड़ती है, लेकिन अंत में पंडित अलोपीदीन उसी गुण से प्रभावित होकर उसे पहले से भी बेहतर और सम्मानजनक पद देते हैं।

  2. धर्म की जीत: इस कहानी में धर्म और धन के बीच एक संघर्ष दिखाया गया है। वंशीधर 'धर्म' (ईमानदारी, कर्तव्य) का प्रतीक है और पंडित अलोपीदीन 'धन' (भ्रष्टाचार, शक्ति) का। भले ही अदालत में धन की जीत होती है, लेकिन अंत में जब अलोपीदीन स्वयं वंशीधर के धर्म के आगे सिर झुकाते हैं, तो यह 'धर्म की जीत' ही होती है।

प्रश्न 2. कहानी के अंत में अलोपीदीन के वंशीधर को मैनेजर नियुक्त करने के पीछे क्या कारण हो सकते हैं? तर्क सहित उत्तर दीजिए। आप इस कहानी का अंत किस प्रकार करते?

उत्तर:
पंडित अलोपीदीन द्वारा वंशीधर को मैनेजर नियुक्त करने के पीछे निम्नलिखित कारण हो सकते हैं:

  • आत्मग्लानि: अलोपीदीन को अपनी गलती का अहसास हुआ कि उन्होंने एक ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति को कष्ट पहुँचाया है। इस आत्मग्लानि को दूर करने के लिए उन्होंने वंशीधर को सम्मानजनक पद दिया।

  • गुणों की परख: अलोपीदीन एक अनुभवी और पारखी व्यक्ति थे। उन्होंने समझ लिया था कि वंशीधर जैसा ईमानदार, स्वाभिमानी और भरोसेमंद व्यक्ति मिलना दुर्लभ है। अपनी विशाल संपत्ति की देखभाल के लिए उन्हें ऐसे ही एक व्यक्ति की आवश्यकता थी जिस पर आँख बंद करके भरोसा किया जा सके।

  • सम्मान की भावना: वंशीधर के अडिग चरित्र ने अलोपीदीन को भीतर से प्रभावित किया। वह वंशीधर का सम्मान करने लगे थे और उसे अपनी सेवा में रखकर वे स्वयं को सम्मानित महसूस करना चाहते थे।

कहानी का दूसरा अंत:
यदि मुझे इस कहानी का अंत करना होता तो मैं भी इसे प्रेमचंद जी की तरह ही सकारात्मक रखता। हालाँकि, एक वैकल्पिक अंत यह हो सकता था:

वंशीधर अलोपीदीन का प्रस्ताव विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर देते और कहते, "पंडित जी, मैं आपके सम्मान का आभारी हूँ, लेकिन मैंने सरकारी नमक की दलाली रोकने की शपथ ली थी, अब आपकी निजी जायदाद में वही कार्य कैसे कर सकता हूँ? मैं कोई और छोटा-मोटा काम करके अपना जीवनयापन कर लूँगा, लेकिन अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं करूँगा।" इससे वंशीधर का चरित्र और भी ऊंचा उठ जाता, लेकिन प्रेमचंद का अंत यह संदेश देता है कि अच्छे गुण अंततः समाज द्वारा पहचाने और पुरस्कृत किए जाते हैं।