काव्य गुण एवं काव्य दोष

कक्षा - 12 हिंदी साहित्य 
विषय: काव्य गुण एवं काव्य दोष

काव्य गुण
परिचय:

काव्य में रस का होना अनिवार्य है, और इस रस को बढ़ाने वाले, काव्य की शोभा में वृद्धि करने वाले तथा उसे अधिक प्रभावशाली बनाने वाले तत्त्वों को 'काव्य गुण' कहते हैं। जिस प्रकार मनुष्य में वीरता, उदारता, दया आदि गुण होते हैं, उसी प्रकार काव्य में भी माधुर्य, ओज और प्रसाद गुण होते हैं। ये गुण काव्य के आंतरिक सौन्दर्य को प्रकट करते हैं।

आचार्य मम्मट के अनुसार, "ये रसस्य अंगिनो धर्माः शौर्यादय इवात्मनः।" अर्थात् गुण रस के उसी प्रकार अनिवार्य अंग हैं, जैसे शूरता आदि आत्मा के।

काव्य गुण के प्रकार:

मुख्य रूप से काव्य गुण तीन प्रकार के होते हैं:

माधुर्य गुण (Madhurya Gun - Sweetness/Grace)

अर्थ: माधुर्य का अर्थ है - मधुरता या मिठास। जिस काव्य रचना को पढ़ने या सुनने से हृदय द्रवित हो जाए, मन में मधुरता का संचार हो, उसे माधुर्य गुण युक्त काव्य कहते हैं।

विशेषताएँ:

1. इसमें कर्णप्रिय, कोमल वर्णों का प्रयोग होता है (जैसे - क, ख, ग, च, छ, ज, झ, त, थ, द, ध, न, प, फ, ब, भ, म, य, र, ल, व, श, स, ह)।

2. कठोर वर्णों (ट, ठ, ड, ढ, ण) तथा संयुक्त अक्षरों का अभाव या बहुत कम प्रयोग होता है।

3. अनुस्वार (ं) या पंचमाक्षरों (ङ, ञ, ण, न, म) का प्रयोग होता है।

4. यह श्रृंगार, करुण और शांत रस में प्रमुखता से पाया जाता है।

उदाहरण:

"बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय।
सौंह करैं भौंहनु हँसै, दैन कहैं नटि जाय॥" (बिहारी)

स्पष्टीकरण: इस दोहे में कोमल वर्णों का प्रयोग है, कोई कठोर वर्ण नहीं है। इसे पढ़ने से मन में श्रीकृष्ण और गोपियों की मधुर लीला का चित्र उभरता है, जिससे आनंद और मधुरता का अनुभव होता है।

"कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि।
कहत लखन सन राम हृदयँ गुनि॥" (तुलसीदास)

स्पष्टीकरण: यहाँ 'क', 'न' जैसे कोमल वर्णों की आवृत्ति और अनुस्वार का प्रयोग है। यह मधुर ध्वनि उत्पन्न करता है और मन को प्रिय लगता है।

"फटा पुराना जूता अपना, पहन पहन मुस्काता हूँ।
नहीं फकीरी पर अपनी मैं, तिल भर भी शर्माता हूँ।" (हरिवंशराय बच्चन)

स्पष्टीकरण: सरल, सहज शब्दावली और कोमल भावों की अभिव्यक्ति इसे माधुर्य गुण युक्त बनाती है, जिसमें जीवन की सहजता का चित्रण है।

"देखि सुदामा की दीन दसा, करुना करिकै करुनानिधि रोये।
पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैनन के जल सों पग धोये॥" (नरोत्तमदास)

स्पष्टीकरण: यहाँ करुण रस की प्रधानता है और कोमल शब्दावली का प्रयोग है, जो हृदय को द्रवित करता है।

"मंद-मंद मुरली बजावत अधर धरे,
मंद-मंद निकस्यो मुकुंद मधुवन तें।" (कवि पद्माकर)

स्पष्टीकरण: 'म' और 'द' जैसे कोमल वर्णों की आवृत्ति, अनुस्वार का प्रयोग और मधुर भाव इसे माधुर्य गुण से युक्त बनाता है।


ओज गुण (Oj Gun - Vigour/Energy)

अर्थ: ओज का अर्थ है - तेज, प्रताप या दीप्ति। जिस काव्य रचना को पढ़ने या सुनने से मन में उत्साह, वीरता, जोश, स्फूर्ति या उत्तेजना का संचार हो, उसे ओज गुण युक्त काव्य कहते हैं।

विशेषताएँ:

1. इसमें कठोर वर्णों (ट, ठ, ड, ढ, ण) तथा संयुक्त अक्षरों का प्रयोग अधिक होता है।

2. रेफ (र्) और रकार का प्रयोग होता है।

3. लंबे-लंबे सामासिक पदों (समास युक्त शब्द) का प्रयोग होता है।

4. यह वीर, रौद्र, भयानक और वीभत्स रस में प्रमुखता से पाया जाता है।

उदाहरण:

"बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥" (सुभद्रा कुमारी चौहान)

स्पष्टीकरण: इस रचना में 'बुंदेले', 'हरबोलों', 'मर्दानी', 'झाँसी' जैसे शब्दों में कठोरता और संयुक्त अक्षरों का प्रयोग है। इसे पढ़ते ही मन में वीरता और उत्साह का भाव जागृत होता है।

"हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती।
स्वयंप्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती॥" (जयशंकर प्रसाद)

स्पष्टीकरण: 'हिमाद्रि', 'तुंग श्रृंग', 'प्रबुद्ध', 'समुज्ज्वला', 'स्वतंत्रता' जैसे शब्दों में कठोरता, संयुक्त अक्षर और सामासिक पदों का प्रयोग है, जो जोश और राष्ट्रीय भावना जगाते हैं।

"चढ़ चेतक पर तलवार उठा, रखता था भूतल पानी को।
राणा प्रताप सिर काट-काट, करता था सफल जवानी को॥" (श्याम नारायण पाण्डेय)

स्पष्टीकरण: 'चेतक', 'तलवार', 'काट-काट' जैसे शब्द और वीर रस की अभिव्यक्ति इसे ओजपूर्ण बनाती है।

"डग-डग करती जब चलती थी, तो काँप उठते थे मगदल।
क्षण भर में ही हाहाकार, मच जाता था भूमंडल॥" (राष्ट्रकवि दिनकर)

स्पष्टीकरण: यहाँ 'डग-डग', 'मगदल', 'हाहाकार', 'भूमंडल' जैसे शब्दों में ओज है, जो युद्ध की भयंकरता और शक्ति का वर्णन करते हैं।

"साजि चतुरंग सैन, अंग में उमंग धरि,
सरजा सिवाजी जंग जीतन चलत हैं।" (भूषण)

स्पष्टीकरण: 'चतुरंग', 'सैन', 'सरजा सिवाजी', 'जंग' जैसे शब्दों और वीर भाव की अभिव्यक्ति से ओज गुण स्पष्ट होता है।


प्रसाद गुण (Prasad Gun - Clarity/Lucidity)

अर्थ: प्रसाद का अर्थ है - प्रसन्नता, निर्मलता या स्वच्छता। जिस काव्य रचना को पढ़ते या सुनते ही उसका अर्थ सरलता से समझ में आ जाए, और मन प्रसन्न हो जाए, उसे प्रसाद गुण युक्त काव्य कहते हैं।

विशेषताएँ:

1. इसमें सरल, सुबोध और प्रचलित शब्दों का प्रयोग होता है।

2. अर्थ समझने में कोई कठिनाई नहीं होती, जैसे सूखी लकड़ी में आग तुरंत फैल जाती है, वैसे ही यह गुण चित्त में तुरंत व्याप्त हो जाता है।

3. यह सभी रसों में पाया जा सकता है, लेकिन शांत और भक्ति रस में विशेष रूप से।

उदाहरण:

"वह आता –
दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।
पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक," (सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला')

स्पष्टीकरण: इस कविता की भाषा अत्यंत सरल और स्पष्ट है। पढ़ते ही एक गरीब, भूखे व्यक्ति का चित्र आँखों के सामने आ जाता है और उसका अर्थ तुरंत समझ में आ जाता है।

"जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरति देखी तिन तैसी।" (तुलसीदास)

स्पष्टीकरण: यह पंक्ति अत्यंत सरल है और इसका अर्थ तुरंत स्पष्ट हो जाता है कि जिसकी जैसी भावना होती है, उसे प्रभु वैसे ही दिखाई देते हैं।

"हे प्रभो! आनंददाता ज्ञान हमको दीजिए।
शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिए॥" (प्रार्थना)

स्पष्टीकरण: यह प्रार्थना सरल शब्दों में ईश्वर से सद्बुद्धि और दुर्गुणों से मुक्ति की कामना करती है, जिसका अर्थ समझने में कोई कठिनाई नहीं होती।

"जीवन भर आतप सह वसुधा पर छाया करता है।
तुच्छ पत्र की भी स्वकर्म में कैसी तत्परता है।" (मैथिलीशरण गुप्त)

स्पष्टीकरण: यहाँ पेड़ के पत्ते के माध्यम से कर्म की महत्ता को सरल शब्दों में समझाया गया है, जो आसानी से समझ में आ जाता है।

"चारु चंद्र की चंचल किरणें, खेल रहीं हैं जल थल में।
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है, अवनि और अम्बरतल में॥" (मैथिलीशरण गुप्त)

स्पष्टीकरण: भाषा सरल, प्रवाहमयी और चित्रमयी है। अर्थ तुरंत समझ में आ जाता है और मन प्रसन्न होता है।

काव्य दोष
परिचय:

काव्य के रस का अपकर्ष करने वाले अर्थात् रस-सौंदर्य को हानि पहुँचाने वाले तत्त्व 'काव्य दोष' कहलाते हैं। जिस प्रकार मानव शरीर में कोई विकार उसे कुरूप बना देता है, उसी प्रकार काव्य में दोष आने से उसकी सुंदरता और प्रभाव कम हो जाता है।

आचार्य मम्मट के अनुसार, "मुख्यार्थहतिर्दोषो रसश्च मुख्यस्तदाश्रयाद्वाच्यः।" अर्थात् मुख्यार्थ (और रस) को क्षति पहुँचाने वाले तत्व दोष हैं।

प्रमुख काव्य दोष:
1. श्रुतिकटुत्व दोष (Shrutikatutva Dosh - Harsh Sound)

अर्थ: जब काव्य में ऐसे कठोर वर्णों या शब्दों का प्रयोग किया जाता है जो सुनने में अप्रिय या कर्णकटु (कानों को कड़वे) लगें, तो वहाँ श्रुतिकटुत्व दोष होता है।

पहचान: ट, ठ, ड, ढ, ण (टवर्ग) जैसे कठोर वर्णों का अधिक प्रयोग या ऐसे संयुक्त अक्षर जो उच्चारण में कर्कश हों।

उदाहरण:

"कवि के कठिनतर कर्म की करते नहीं हम दृष्टता।"

स्पष्टीकरण: यहाँ 'कठिनतर', 'कर्म', 'दृष्टता' शब्दों में 'ट', 'ठ', 'ष' जैसे कठोर वर्णों का प्रयोग हुआ है, जो सुनने में कर्कश लगते हैं।

"भट भटकि भई विकट निसि, प्रविस्ट भये नर नाह।"

स्पष्टीकरण: 'भट', 'भटकि', 'विकट', 'प्रविस्ट' शब्दों में टवर्ग के वर्णों और संयुक्त अक्षरों के कारण कर्कशता आ गई है।

"तवंगी के तट में पहुँच ठहर ठठको क्यों?"

स्पष्टीकरण: 'तट', 'ठहर', 'ठठको' शब्दों में टवर्ग के वर्णों की आवृत्ति से यह दोष उत्पन्न हुआ है।

"निष्ठुर तुम ने छोड़ दिया निज अंचल में अभिसार।"

स्पष्टीकरण: 'निष्ठुर' शब्द में 'ष' और 'ठ' के प्रयोग से कठोरता आई है, जो माधुर्य को बाधित करती है।

2. ग्राम्यत्व दोष (Gramyatva Dosh - Rusticity/Vulgarity)

अर्थ: जब शिष्ट साहित्यिक भाषा में गँवारू, असभ्य या बोलचाल के ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है जो काव्य के स्तर के अनुकूल न हों, तो वहाँ ग्राम्यत्व दोष होता है।

पहचान: ऐसे शब्द जो लोकभाषा या ग्रामीण बोली के हों और साहित्यिक गरिमा के अनुरूप न हों।

उदाहरण:

"मूँड़ पे मुकुट धरे सोहत हैं गोपाल।"

स्पष्टीकरण: यहाँ 'मूँड़' शब्द गँवारू है। इसके स्थान पर 'मस्तक' या 'सिर' शब्द का प्रयोग उचित होता। "मस्तक पे मुकुट धरे सोहत हैं गोपाल।"

"और शहरों की क्या कहूँ बात, वहाँ मट्टी भी महंगी है।"

स्पष्टीकरण: यहाँ 'मट्टी' शब्द ग्रामीण बोलचाल का है। साहित्यिक भाषा में 'मिट्टी' या 'मृदा' शब्द अधिक उपयुक्त होता।

"कठिन देखि घोंघा जस खाजा।"

स्पष्टीकरण: 'घोंघा' और 'खाजा' जैसे शब्द काव्य की साहित्यिक गरिमा को कम करते हैं।

"रावण मारा गया सुनकर सब निच्चित हुए।"

स्पष्टीकरण: 'निच्चित' शब्द ग्रामीण प्रयोग है, इसके स्थान पर 'निश्चित' या 'निश्चिंत' होना चाहिए था।

3. अपुष्टार्थ दोष (Apushtarth Dosh - Weak Meaning)

अर्थ: जब काव्य में किसी बात को कहने के लिए ऐसे शब्द का प्रयोग किया जाए जो उस अर्थ को पूरी तरह या प्रभावशाली ढंग से व्यक्त न कर पाए, अर्थात् जहाँ अर्थ की पुष्टि न हो, वहाँ अपुष्टार्थ दोष होता है।

पहचान: जहाँ प्रयुक्त शब्द अपेक्षित अर्थ को पूरी तरह स्पष्ट करने में कमजोर या अपर्याप्त लगे।

उदाहरण:

"तुम पीत वसन परिधान किये, दिखते हो कुछ-कुछ छैल छबीले।"

स्पष्टीकरण: यहाँ 'कुछ-कुछ' शब्द कथन को कमजोर बना रहा है। यदि नायक वास्तव में छैल छबीला है तो 'कुछ-कुछ' कहना अर्थ को अपुष्ट करता है।

"विश्व में मिलते नहीं हैं वीर भारत सरीखे।"

स्पष्टीकरण: यहाँ 'मिलते नहीं हैं' कथन को सामान्य बना रहा है। इसके स्थान पर "विश्व में भारत सरीखे वीर दुर्लभ हैं" या "नहीं हैं कोई वीर भारत सरीखे" अधिक सशक्त होता। यहाँ अर्थ की पुष्टि पूरी तरह नहीं हो रही। (इसे अक्रमत्व दोष का उदाहरण भी माना जा सकता है यदि क्रम पर जोर दिया जाए।)

"उस वन में बहुत से वृक्ष थे।"

स्पष्टीकरण: 'बहुत से' कहने से वन की सघनता का भाव पूरी तरह व्यक्त नहीं होता। "उस वन में असंख्य वृक्ष थे" या "वह वन वृक्षों से सघन था" अधिक पुष्ट होता।

"वह दृश्य अत्यंत मनमोहक था।"

स्पष्टीकरण: यदि दृश्य वास्तव में बहुत सुंदर था, तो 'अत्यंत' शब्द ठीक है, पर यदि कवि कहना चाहता है कि वह अद्वितीय था, तो 'अद्वितीय' या 'अभूतपूर्व' शब्द अधिक पुष्ट होते। यहाँ संदर्भ महत्वपूर्ण है, पर कभी-कभी 'अत्यंत' जैसे शब्द भी भाव को पूरी तरह व्यक्त नहीं कर पाते।

4. क्लिष्टत्व दोष (Klishtatva Dosh - Obscurity)

अर्थ: जब काव्य में ऐसे शब्दों या वाक्य रचना का प्रयोग किया जाए जिससे अर्थ समझने में बहुत कठिनाई हो या अर्थ देर से समझ में आए, तो वहाँ क्लिष्टत्व दोष होता है। 'क्लिष्ट' का अर्थ है - कठिन।

पहचान: दुरूह (कठिन) शब्दावली, जटिल वाक्य-विन्यास, शास्त्रीय या दार्शनिक शब्दों का अनावश्यक प्रयोग।

उदाहरण:

"अजसु न चाहिय केवल स्वामिहि। तोहिं तजि जो भज विषय अकामिहि।।"

स्पष्टीकरण: इस पंक्ति का अर्थ समझने के लिए काफी प्रयास करना पड़ता है। इसका सरल अर्थ है: "केवल स्वामी (राम) को अपयश नहीं चाहिए। (हे मूर्ख मन!) तुझे छोड़कर जो निष्काम भाव से विषयों को भजता है (अर्थात् विषय भोग की कामना न करते हुए भी विषय सेवन करता है), उसे अपयश नहीं मिलता।" यह रचना जटिल है।

"हे उत्तरा के धन, रहो तुम उत्तरा के पास ही।"

स्पष्टीकरण: यहाँ 'उत्तरा के धन' का अर्थ अर्जुन है (उत्तर का पुत्र अभिमन्यु और अभिमन्यु का पुत्र परीक्षित, अर्जुन के लिए 'धन' समान)। यह अर्थ सामान्य पाठक के लिए समझना कठिन है।

"नखत, वेद, ग्रह, जोरि अरधकरि, सोइ बनत अब खात।"

स्पष्टीकरण: यहाँ पहेलीनुमा भाषा है। नखत (27), वेद (4), ग्रह (9) को जोड़कर (27+4+9=40), उसका आधा (20) करने पर 'विष' (बीस) बनता है, जिसे खाने की बात कही गई है। यह समझने में बहुत कठिन है।

"मंदोदरि दृग धारि वारि कहि प्रिय सों बचन पुनि पुनि।"

स्पष्टीकरण: 'दृग धारि वारि' का अर्थ है 'आँखों में आँसू भरकर'। यह 표현 क्लिष्ट है।

5. अक्रमत्व दोष (Akramatva Dosh - Incorrect Word Order)

अर्थ: जब काव्य में शब्दों का क्रम व्याकरण या लोक-प्रसिद्धि के अनुसार ठीक न हो, जिससे अर्थ समझने में बाधा उत्पन्न हो या वाक्य अटपटा लगे, तो वहाँ अक्रमत्व दोष होता है।

पहचान: शब्दों का आगे-पीछे होना, अन्वय (वाक्य के पदों का परस्पर संबंध) में कठिनाई।

उदाहरण:

"विश्व में मिलते नहीं हैं वीर भारत सरीखे।"

स्पष्टीकरण: यहाँ शब्दों का क्रम सही नहीं है। सही क्रम होना चाहिए: "भारत सरीखे वीर विश्व में नहीं मिलते।" या "विश्व में भारत सरीखे वीर नहीं मिलते।"

"सीता हरण राम कर बाण।"

स्पष्टीकरण: यहाँ शब्दों का क्रम गलत है। उचित क्रम होगा: "राम के बाण से सीता का हरण" (यदि यह अर्थ है) या "राम ने बाण से (रावण को मारकर) सीता का हरण (से उद्धार) किया।" संदर्भ के अनुसार अर्थ बदल सकता है, पर दिया गया क्रम अटपटा है।

"देती नहीं दिखाई भीड़ में वह मुझे।"

स्पष्टीकरण: सही क्रम होगा: "वह मुझे भीड़ में दिखाई नहीं देती।"

"रखा पानी परात को हाथ छुयो नहिं।" (प्रसिद्ध उदाहरण, प्रसाद गुण में भी है पर यहाँ क्रम की दृष्टि से देखें)

स्पष्टीकरण: यद्यपि यह प्रसिद्ध है, पर व्याकरणिक क्रम होगा: "परात को पानी (लाकर) रखा, (पर) हाथ (से) नहीं छुआ।" प्रचलित होने के कारण इसे दोषपूर्ण नहीं माना जाता, पर नए कवि के लिए यह दोषपूर्ण हो सकता है।

6. पुनरुक्ति दोष (Punarukti Dosh - Redundancy)

अर्थ: जब काव्य में एक ही अर्थ वाले शब्दों का अनावश्यक रूप से दोबारा प्रयोग किया जाए, तो वहाँ पुनरुक्ति दोष होता है।

पहचान: समानार्थक शब्दों का एक साथ प्रयोग बिना किसी विशेष प्रयोजन के।

उदाहरण:

"कोमल वचन सभी को भाते, अच्छे लगते मधुर वैन।"

स्पष्टीकरण: 'कोमल वचन' और 'मधुर वैन' दोनों का अर्थ लगभग समान है (मीठे बोल)। एक ही बात को दो बार कहा गया है।

"पुनि फिर राम निकट सो आई।"

स्पष्टीकरण: 'पुनि' और 'फिर' दोनों का अर्थ 'दोबारा' या 'पुनः' होता है। एक ही शब्द का प्रयोग पर्याप्त था।

"सजल नैनों से अश्रु बह रहे थे।"

स्पष्टीकरण: 'सजल नैन' का अर्थ ही है 'आँसुओं से भरे नेत्र'। फिर 'अश्रु बह रहे थे' कहना अनावश्यक है। "सजल नैनों से जल बह रहा था" या "नैनों से अश्रु बह रहे थे" कहना पर्याप्त होता।

"क्यों व्यर्थ ही तुम परिश्रम कर रहे हो?"

स्पष्टीकरण: 'व्यर्थ' का अर्थ ही है 'बिना किसी फल के'। यदि परिश्रम व्यर्थ है तो वह निष्फल ही होगा। "क्यों व्यर्थ परिश्रम कर रहे हो?" या "क्यों निष्फल परिश्रम कर रहे हो?" पर्याप्त है।

निष्कर्ष

उत्तम काव्य रचना के लिए यह आवश्यक है कि उसमें काव्य गुणों का समावेश हो और काव्य दोषों से बचा जाए। काव्य गुण जहाँ काव्य को प्रभावशाली और आनंददायक बनाते हैं, वहीं काव्य दोष उसके सौंदर्य और रसास्वादन में बाधा उत्पन्न करते हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें