महानगरीय जीवन : अभिशाप या वरदान
कहा गया है कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है। मानव ने ज्यों-ज्यों सभ्यता की ओर कदम बढ़ाए त्यों-त्यों उसकी आवश्यकताएँ बढ़ती गई। अपनी इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वह इधर-उधर जाने के लिए विवश हुआ। इसी क्रम में मनुष्य ने बेहतर जीवनयापन के लिए शहर की ओर कदम बढ़ाए।
महानगरीय जीवन का अपना एक विशेष आकर्षण होता है। यह आकर्षण है-आधुनिकता की चमक-दमक। यही चमक-दमक गाँवों तथा छोटे-छोटे शहरों के वासियों को आकर्षित करती है। महानगर की प्रच्छन्न समस्याएँ यहाँ आने वालों को अपने जाल में यूँ उलझा लेती हैं जैसे मकड़ी के जाल में कोई कीड़ा। महानगर की इन समस्याओं से आम आदमी का निकलना आसान नहीं होता है। गाँवों से या छोटे शहरों से आने वालों के लिए महानगरीय जीवन दिवास्वप्न बनकर रह जाता है। हमारे देश में दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई और मुंबई की गणना महानगरों में की जाती है। इन महानगरों का अपना विशेष आकर्षण है। इनका
ऐतिहासिक महत्व होने के साथ-साथ सांस्कृतिक महत्त्व भी है। इन महानगरों में विश्व की आधुनिकतम सुविधाएँ उपलब्ध हैं। यहाँ रोजगार के साधन हैं। शिक्षा एवं परिवहन की उत्तम व्यवस्था है। यहाँ की गगनचुंबी इमारतें जनसाधारण के लिए कौतूहल का विषय बनती हैं। ये महानगरों के सौंदर्य में चार चाँद लगाती हैं। यह सब देखकर विदेशी पर्यटक भी इन महानगरों की ओर आकर्षित हो पर्यटन के लिए आते हैं। महानगरों में पाई जाने वाली इन सुख-सुविधाओं की ओर जनसाधारण आसानी से आकर्षित होता है। वह कभी रोजगार की तलाश में तो कभी बेहतर जीवन जीने की लालसा में यहाँ आता है और यहीं का होकर रह जाता है।
दिल्ली जैसे महानगर की जनसंख्या तो कई साल पहले ही एक करोड़ को पार कर चुकी थी। इसमें कोई संदेह नहीं कि महानगरीय जीवन संपन्न लोगों के लिए वरदान है। उनके व्यवसाय तथा कारोबार यहीं फलते-फूलते हैं, जो शहरों के लिए भी लाभदायी होते हैं। अपनी बेहतर आमदनी के कारण ये संपन्न व्यक्ति कार, ए.सी. तथा विलासिता की वस्तुओं को प्रयोग कर स्वर्गिक सुख की अनुभूति करते हैं। इसके अलावा शिक्षा की बेहतर सुविधाएँ, आवागमन के उन्नत साधन, चमचमाती सड़कें, स्वास्थ्य की बेहतर सुविधाएँ, एक फोन काल की दूरी पर पुलिस, खाद्य वस्तुओं की बेमौसम लगता है। महानगरों की बढ़ती जनसंख्या के अनुपात में मूलभूत सुविधाओं में वृद्ध न होने से यहाँ के अधिकतर निवासियों का जीवन दूभर हो गया है। यहाँ सबसे बड़ी समस्या आवास की है।
थोड़ी-सी जगह मिली नहीं कि निम्नवर्ग ने अपनी झोंपड़ी/झुग्गी बना ली। एक ओर गगनचुंबी अट्टालिकाएँ तो दूसरी ओर शहर के माथे पर दाग बनकर सौंदर्य का नाश करती झोंपड़पट्टयाँ। यहाँ संपन्न वर्ग के एक आदमी के लिए बीस-बीस कमरे हैं तो दूसरी ओर किराए के एक कमरे में पंद्रह या बीस आदमी रहने के लिए विवश हैं। इसके अलावा यहाँ न पीने के लिए शुद्ध पानी और न साँस लेने के लिए स्वच्छ हवा है। खाद्य वस्तुओं में मिलावट का कहना ही क्या। कुछ भी शुद्ध नहीं। कमरे ऐसे कि जिनमें शायद ही कभी धूप के दर्शन हों। यहाँ की दूषित वस्तुएँ अकसर बीमारी की जनक होती हैं। इस प्रकार जनसाधारण के लिए ये महानगर किसी अभिशाप से कम नहीं हैं। जिस प्रकार हर सिक्के के दो पहलू होते हैं उसी प्रकार नगरीय जीवन के भी अच्छाई और बुराई रूपी दो पहलू हैं। संपन्न वर्ग के लिए महानगर किसी वरदान से कम नहीं है तो गरीबों के लिए अभिशाप है। यह सत्य है कि महानगरों में आगे बढ़ने के पर्याप्त अवसर हैं। अथक परिश्रम और लगन से इस अभिशाप को वरदान में बदलकर इनका लाभ उठाया जा सकता है।
मनोरंजन के साधन
मनुष्य कर्मशील प्राणी है। जीवन की बढ़ती आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए वह कर्म में लीन रहता है। काम की अधिकता उसके जीवन में नीरसता लाती है। नीरसता से छुटकारा पाने के लिए उसे मनोविनोद की आवश्यकता होती है। इसके अलावा काम के बीच-बीच में उसे मनोरंजन मिल जाए तो काम करने की गति बढ़ती है तथा मनुष्य का काम में मन लगा रहता है।
मनुष्य ने जब से विकास की ओर कदम बढ़ाया, उसी समय से उसकी आवश्यकता बढ़ती गई। दूसरों के सुखमय जीवन से प्रतिस्पर्धा करके उसने अपनी आवश्यकताएँ और भी बढ़ा लीं, जिसके कारण उसे न दिन को चैन है न रात को आराम। ऐसे में उसका मस्तिष्क, तन, मन यहाँ तक कि उसका अंग-अंग थक जाता है। एक ही प्रकार की दिनचर्या से मनुष्य उकता जाता है उसे अपनी थकान मिटाने और जी बहलाने के लिए मनोरंजन की आवश्यकता होती है, जो उसकी थकान भगाकर उसके मन को पुन: उत्साह एवं उमंग से भर देता है। यही कारण है कि मनुष्य आदि काल से ही किसी-न-किसी रूप में अपना मनोरंजन करता आया है।
मानव ने प्राचीन काल से ही अपने मनोरंजन के साधन खोज रखे थे। अपने मनोविनोद के लिए पक्षियों को लड़ाना, विभिन्न जानवरों को लड़ाना, रथों की दौड़, धनुष-बाण से निशाना लगाना, लाठी-तलवार से मुकाबला करना, कम तथा बड़ी दूरी की दौड़, वृक्ष पर चढ़ना, कबड्डी, कुश्ती, गुल्ली-डंडा, गुड्डे-गुड़ियों का विवाह, रस्साकशी करना, रस्सी कूदना, जुआ, गाना-बजाना, नाटक करना, नाचना, अभिनय, नौकायन, भाला-कटार चलाना, शिकार करना, पंजा लड़ाना आदि करता था। मनुष्य के जीवन में विकास के साथ-साथ मनोरंजन के साधनों में भी बदलाव आने लगा।
आधुनिक युग में मनोरंजन के अनेक साधन उपलब्ध हैं। यह तो मनुष्य की रुचि, सामथ्र्य आदि पर निर्भर करता है कि वह इनमें से किनका चुनाव करता है। विज्ञान ने मनोरंजन के क्षेत्र में हमारी सुविधाएँ बढ़ाई हैं। रेडियो पर हम लोकसंगीत, फिल्म संगीत, शास्त्रीय संगीत का आनंद लेते हैं तो सिनेमा हॉल में चित्रपट पर विभिन्न फिल्मों का। इसके अलावा ताश, शतरंज, सर्कस, प्रदर्शनी, फुटबॉल, हॉकी, क्रिकेट, टेनिस, खो-खो, बैडमिंटन आदि ऐसे मनोरंजन के साधन हैं, जो स्वास्थ्य के लिए भी लाभप्रद हैं।
हमारे सामने आजकल मनोरंजन के अनेक विकल्प मौजूद हैं, जिनमें से अपनी रुचि के अनुसार साधन अपनाकर हम अपना मनोरंजन कर सकते हैं। आज कवि सम्मेलन सुनना, ताश एवं शतरंज खेलना, फिल्म देखना, रेडियो सुनना, विभिन्न प्रकार के खेल खेलना तथा संगीत सुनकर मनोरंजन किया जा सकता है। सिनेमा हॉल में फिल्म देखना एक लोकप्रिय साधन है। मजदूर या गरीब व्यक्ति कम कमाता है, फिर भी वह समय निकालकर फिल्म देखने अवश्य जाता है। युवकों से लेकर वृद्धों तक के लिए यह मनोरंजन का सबसे लोकप्रिय साधन है। आज मोबाइल फोन पर गाने सुनने का प्रचलन इस प्रकार बढ़ा है कि युवाओं को कानों में लीड लगाकर गाने सुनते हुए देखा जा सकता है।
मनोरंजन करने से मनुष्य अपनी थकान, चिंता, दुख से छुटकारा पाता है या यूँ कह सकते हैं कि मनोरंजन मनुष्य को खुशियों की दुनिया में ले जाते हैं। उसे उमंग, उत्साह से भरकर कार्य से छुटकारा दिलाते हैं। बीमारियों में दर्द को भूलने का उत्तम साधन मनोरंजन है। यह मनुष्य को स्वस्थ रहने में भी मदद करता है। ‘अति सर्वत्र वर्जते’ अर्थात् मनोरंजन की अधिकता भी मनुष्य को आलसी एवं अकर्मण्य बनाती है। अत: मनुष्य अपने काम को छोड़कर आमोद-प्रमोद में न डूबा रहे अन्यथा मनोरंजन ही उसे विनाश की ओर ले जा सकता है। हमें मनोरंजन के उन्हीं साधनों को अपनाना चाहिए, जिससे हमारा चरित्र मजबूत हो तथा हम स्वस्थ बनें।
शिक्षा में खेलों का महत्व
अथवा
जीवन में खेलों का महत्व
विधाता ने सृष्टि में जितने भी प्राणियों की रचना की उनमें मनुष्य सर्वश्रेष्ठ है। जैसे मनुष्य किसी बिंदु या विचार पर चिंतन कर सकता है, वैसे अन्य प्राणी विचार नहीं कर सकते। अपनी इसी शक्ति के बल पर वह अन्य प्राणियों पर शासन करता आया है। मनुष्य ने अपनी शक्ति के बल पर प्रकृति के कार्य-कलाप में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया है। मनुष्य की शक्ति में जहाँ उसकी बुद्ध और विवेक की भूमिका है वहीं इसमें उसके शारीरिक बल के योगदान को कम करके नहीं आँका जा सकता है। मस्तिष्क के विकास का साधन यदि शिक्षा है तो शारीरिक विकास का साधन परिश्रम एवं खेल है। परिश्रम खेल में किसी-न-किसी रूप में समाया रहता है। खेल शारीरिक विकास के सर्वोत्तम साधन हैं।
घर के बाहर खेले जाने वाले खेल-कबड्डी, कुश्ती, फुटबॉल, टेनिस, बालीवॉल, क्रिकेट, भ्रमण, दौड़ आदि शारीरिक विकास के लिए अत्यंत उपयोगी हैं। इनकी गणना स्वास्थ्यवर्धक खेलों में की जाती है। कैरम, शतरंज, ताश आदि कुछ ऐसे खेल हैं जिन्हें घर में बैठकर खेला जा सकता है। इन खेलों से हमारा मानसिक विकास होता है। खेलों से हमारा शारीरिक और मानसिक विकास होता ही है साथ ही मनोरंजन भी होता है। खेल थके-हारे शरीर की थकान हर लेते हैं और हमें ऊर्जा एवं उत्साह से भर देते हैं। आदमी खेलते समय अपनी चिंता एवं छोटे-मोटे दुख भूल जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में मजदूर वर्ग तथा किसानों को दोपहर के भोजन के बाद ताश खेलकर समय बिताते देखा जा सकता है। इससे उनका मनोरंजन होता है और वे अपनी थकान से छुटकारा पाकर दोपहर बाद काम पर जाने को तैयार होते हैं।
विद्यार्थियों के लिए खेलों का विशेष महत्व है। वे मध्यांतर में अपना खाना जल्दी से समाप्त कर खेलने में व्यस्त हो जाते हैं। उनकी पढ़ाई के घंटों में खेल के लिए समय निर्धारित होता है, जिससे वे अपनी शारीरिक तथा मानसिक थकान भूल जाएँ। उनका मनोरंजन हो और वे प्रसन्नचित्त होकर बाद की पढ़ाई में एकाग्रचित्त हो सकें। खेलों से खिलाड़ियों में मानवीय गुणों का उदय होता है। खिलाड़ी खेल-खेल में कब यह सब सीख जाते हैं पता ही नहीं चलता। कुछ खेल खिलाड़ियों द्वारा सामूहिक रूप में खेले जाते हैं; जैसे-कबड्डी, क्रिकेट, फुटबॉल, वालीबॉल आदि। इनसे खिलाड़ियों में सामूहिकता की भावना विकसित होती है, क्योंकि टीम की हार-जीत प्रत्येक खिलाड़ी के योगदान पर निर्भर करती है। इसके अलावा खिलाड़ी में आत्मनिर्भरता की भावना भी विकसित होती है।
उसमें अपने साथियों के लिए स्नेह और मित्रता पैदा होती है जो बाद में अपनत्व की भावना प्रबल करती है। खेलते समय खिलाड़ी में जो प्रतिस्पर्धा की भावना होती है वही खेल की समाप्ति पर हाथ मिलाते ही मित्रता में बदल जाती है। ऋषियों-मुनियों को यह बात भली प्रकार पता थी कि शारीरिक और मानसिक विकास बनाए रखने के लिए खेलों का बहुत महत्व है। वे अपने आश्रम में विद्यार्थियों को विभिन्न खेलों में पारंगत बना देते थे। इससे वे बलिष्ठ बनते थे, जो रणकौशल के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण योग्यता थी। शारीरिक रूप से स्वस्थ होने पर वे मानसिक रूप से भी स्वस्थ होते थे।
मानसिक स्वास्थ्य के साथ शारीरिक बल ‘सोने पर सुहागा’ के समान होती है। अकसर देखा गया है कि दिन-रात किताबों में डूबा रहने वाला विद्यार्थी यदि बीमार रहता है तो उससे सफलता की आशा कैसे की जा सकती है। वास्तव में शारीरिक बल के अभाव में सभी गुण विफल हो जाते हैं। कुछ समय पहले तक खेलों को बहुत अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता था पर अब समय एवं सोच बदल चुकी है। ‘खेलोगे-कूदोगे हो जाओगे खराब’ वाली कहावत को लोग भूलकर ‘खेलोगे-कूदोगे बनोगे नवाब’ वाली कहावत को अपने जीवन का अंग बना चुके हैं।
ओलंपिक खेलों और कॉमनवेल्थ खेलों आदि में विजयी होने वाले खिलाड़ियों पर होने वाली नोटों की बरसात से यह बात प्रमाणित भी हो चुकी है। खेलों के माध्यम से इतना धन, यश तथा सुख-सुविधाएँ प्राप्त होती हैं कि आम आदमी बस इनकी कल्पना भर कर सकता है। सचिन तेंदुलकर, महेंद्र सिंह धोनी, विजेंद्र कुमार, सोमदेव देव वर्मन, सायना नेहवाल आदि कुछ ऐसे ही नाम हैं जिनके कदम यश और धन चूम रहे हैं। अति हर चीज की बुरी होती है। यह सत्य है कि विद्यार्थियों के लिए शिक्षा के समान ही खेल भी आवश्यक है पर वही विद्यार्थी खेलों में इतना लीन हो जाए कि पढ़ाई भूल जाए तो अच्छा नहीं होगा; क्योंकि हर बालक सचिन तेंदुलकर नहीं बन सकता है। अत: आवश्यक है कि खेल और शिक्षा में समन्वय बनया जाए तथा खेलों को शिक्षा का अंग बनाकर प्रत्येक विद्यालय में लागू किया जाए।
कंप्यूटर-आज की आवश्यकता
मनुष्य की प्रगति में विज्ञान की महत्वपूर्ण भूमिका है। उसने मनुष्य को वह सभी सुविधाएँ दी हैं जिनकी वह सदा से लालस: किया करता था। विज्ञान ने जिन उपकरणों एवं विशिष्ट साधनों से जीवन सुखमय बनाया है, उनमें दूरदर्शन, मोबाइल फोन, विभिन्न चिकित्सीय उपकरण, फ्रिज, ए.सी. कारें आदि हैं, परंतु कप्यूटर का नाम लिए बिना यह विकास यात्रा अधूरी सी लगती है। आज इसका प्रयोग लगभग हर स्थान पर देखा जा सकता है।
कंप्यूटर क्या है, ऐसी जिज्ञासा मन में आना स्वाभाविक है। वास्तव में कंप्यूटर अनेक यांत्रिक मस्तिष्कों का योग है, जो अत्यंत तेज गति से कम-से-कम समय में सही-सही काम कर सकता हैं। गणितीय समस्याओं को हल करने में कंप्यूटर का कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं है। इसके प्रयोग से हर कार्य को अत्यंत शीघ्रता से किया जा रहा है जो इसकी दिन-प्रतिदिन बढ़ती लोकप्रियता का कारण है। भारत में भी कंप्यूटर के प्रति आकर्षण बढ़ा है, जिसको और उन्नत बनाने के लिए विभिन्न देशों के साथ शोध कार्य किया जा रहा है।
कंप्यूटर का जन्म उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ में हुआ। जिसके जनक थे-चालर्स बेवेज। यह कंप्यूटर जटिल गणनाएँ आसानी से और कम समय में कर सकता है। इसमें आँकड़ों को मुद्रित करने की भी अद्भुत क्षमता है। इसमें गणनाओं के लिए एक विशेष भाषा का प्रयोग किया जाता है जिसे ‘कंप्यूटर का प्रोग्राम’ कहा जाता है। कंप्यूटर की गणना कितनी शुद्ध है, इसका उत्तरदायित्व कंप्यूटर पर कम उसके प्रयोगकर्ता पर अधिक निर्भर करता है। आज इसका प्रयोग हर क्षेत्र में होने लगा है। कंप्यूटर का प्रयोग अब इतना बढ़ गया है कि यह सोचना पड़ता है कि कंप्यूटर का प्रयोग कहाँ नहीं हो रहा है। बैंक में हिसाब-किताब रखना हो या पुस्तकों का प्रकाशन, कंप्यूटर ने अपनी भूमिका से इसे आसान बना दिया है।
आज चिकित्सा, इंजीनियरिंग, रेलगाड़ियों के संचालन, उनके टिकटों की बुकिंग, वायुयान की उड़ान तथा टिकट बुकिंग में इसका प्रयोग किया जा रहा है। इसके अलावा भवनों, मोटर-गाड़ियों, हवाई-जहाज, विभिन्न उपकरणों के पुजों के डिजाइन तैयार करने में इसका उपयोग किया जा रहा है। कला के क्षेत्र में भी इसका प्रयोग किया जा रहा है। अंतरिक्ष विज्ञान, औद्योगिक क्षेत्र, आम-चुनाव तथा परीक्षा के प्रश्नपत्र बनाने और उनका मूल्यांकन करने के लिए भी कंप्यूटर का उपयोग किया जा रहा है। कंप्यूटर ने अपनी उपयोगिता के कारण कार्यालयों में गहरी पैठ बना ली है। इसकी मदद से अब फाइलों की संख्या घटकर बहुत ही कम हो गई है। कार्यालय की सारी गतिविधियाँ सी.डी. में संग्रहित कर ली जाती हैं और यथा समय उनको कंप्यूटर के माध्यम से सुविधाजनक तरीके से प्रयोग में लाया जा सकता है। स्थिति यह है कि ‘फाइलों को दीमक चाट गए’ वाली बातें बीते समय की होती जा रही हैं।
इंटरनेट का साथ कंप्यूटर के लिए सोने पर सुहागा वाली स्थिति बना देता है। अब तो समाचार-पत्र भी इंटरनेट के माध्यम से कंप्यूटर पर पढ़े जा सकते हैं। विश्व के किसी कोने में छपी पुस्तक हो या कोई फिल्म या किसी घटना की जानकारी इंटरनेट के माध्यम से कंप्यूटर पर उपलब्ध है। वास्तव में बहुत-सी जानकारियों का ढेर कंप्यूटर के रूप में हमारे कमरे में उपलब्ध है। , कंप्यूटर बहुत ही उपयोगी उपकरण है। यह विज्ञान की वह अद्भुत खोज है जो बहुउपयोगी है। आवश्यकता है कि इसका आवश्यकतानुरूप तथा ठीक-ठीक प्रयोग किया जाए। मनुष्य को चाहिए कि वह अपने हर कार्य के लिए कंप्यूटर पर आश्रित न बने तथा स्वयं भी सक्रिय रहे। इसे प्रयोग में लाते समय स्वास्थ्य संबंधी निर्देशों का पालन अवश्य करना चाहिए जिससे हमारे स्वास्थ्य पर इसका कुप्रभाव न पड़े।