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कक्षा - 12 सरोज स्मृति



पाठ - 2: सरोज स्मृति (Sarij Smriti)

यह कविता आधुनिक हिंदी साहित्य के सबसे महत्वपूर्ण शोकगीतों (Elegies) में से एक है। यह केवल एक पिता का अपनी पुत्री के लिए विलाप नहीं, बल्कि कवि के अपने जीवन-संघर्ष, समाज की निष्ठुरता और एक पिता की विवशता का मार्मिक दस्तावेज़ है।

1. कवि का साहित्यिक परिचय: सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'

  • जीवनकाल: 1899 - 1961

  • युग: छायावाद के चार प्रमुख स्तंभों (पंत, प्रसाद, वर्मा, निराला) में से एक।

  • साहित्यिक विशेषताएँ:

    1. विद्रोही और क्रांतिकारी स्वर: निराला जी ने अपनी कविताओं में सामाजिक रूढ़ियों, परंपराओं और शोषण के विरुद्ध आवाज़ उठाई। उनका व्यक्तित्व और काव्य दोनों ही फक्कड़ और विद्रोही थे।

    2. मुक्त छंद के प्रवर्तक: उन्होंने हिंदी कविता को छंद के बंधनों से मुक्त किया और 'मुक्त छंद' (जिसे 'रबर छंद' या 'केंचुआ छंद' कहकर आलोचकों ने मज़ाक उड़ाया) की शुरुआत की। 'जूही की कली' उनकी मुक्त छंद की प्रसिद्ध प्रारंभिक कविता है।

    3. दार्शनिकता और रहस्यवाद: उनकी कविताओं में अद्वैत दर्शन और रहस्यवाद की गहरी छाप मिलती है, जैसे 'राम की शक्ति पूजा' में।

    4. प्रगतिवादी चेतना: उन्होंने शोषितों, दलितों और किसानों की पीड़ा को अपनी कविताओं का विषय बनाया। 'वह तोड़ती पत्थर' इसका उत्कृष्ट उदाहरण है।

    5. भाषा: निराला की भाषा के दो रूप मिलते हैं - एक ओर 'राम की शक्ति पूजा' जैसी तत्सम और क्लिष्ट संस्कृतनिष्ठ भाषा, तो दूसरी ओर 'कुकुरमुत्ता' जैसी आम बोलचाल की व्यंग्यात्मक भाषा।

  • प्रमुख रचनाएँ:

    • काव्य-संग्रह: अनामिका, परिमल, गीतिका, कुकुरमुत्ता, अणिमा, नए पत्ते, बेला, अर्चना, आराधना।

    • प्रसिद्ध कविताएँ: राम की शक्ति पूजा, सरोज स्मृति, बादल राग, वह तोड़ती पत्थर, जूही की कली।

    • गद्य: बिल्लेसुर बकरिहा (उपन्यास), चतुरी चमार (कहानी-संग्रह)।

2. 'सरोज स्मृति' की व्याख्या

'सरोज स्मृति' निराला जी ने अपनी 18 वर्षीय पुत्री सरोज की मृत्यु के बाद लिखी थी। यह कविता उनकी बेटी की स्मृति में एक काव्यात्मक श्रद्धांजलि (तर्पण) है। यहाँ पाठ्यक्रम में शामिल महत्वपूर्ण अंशों की व्याख्या दी गई है।


अंश 1

देखा विवाह आमूल नवल,
तुझ पर शुभ पड़ा कलश का जल।
देखती मुझे तू हँसी मंद,
होंठों में बिजली फँसी स्पंद।
उर में भर झूली छवि सुंदर,
प्रिय की अशब्द श्रृंगार-मुखर।
तू खुली एक उच्छ्वास संग,
विश्वास-स्तब्ध बँध अंग-अंग।

  • शब्दार्थ:

    • आमूल: पूरी तरह से, जड़ से।

    • नवल: नया।

    • स्पंद: कंपन, धड़कन।

    • उर: हृदय।

    • अशब्द: बिना शब्दों के।

    • मुखर: प्रकट करने वाला, बोलने वाला।

    • उच्छ्वास: गहरी साँस, आनंद की अभिव्यक्ति।

    • स्तब्ध: स्थिर, चकित।

  • प्रसंग: कवि अपनी पुत्री सरोज के विवाह को याद कर रहे हैं, जो बहुत ही सादे और नए ढंग से हुआ था।

  • व्याख्या:
    कवि कहते हैं कि हे पुत्री! मैंने तुम्हारा विवाह पूरी तरह से नए रूप में देखा। यह पारंपरिक विवाह जैसा नहीं था, इसमें कोई शोर-शराबा या आडंबर नहीं था। तुम पर जब मांगलिक कलश का शुभ जल डाला गया, तब तुम मुझे देखकर धीरे से मुस्कुराई। तुम्हारी उस मुस्कान में ऐसी चमक थी मानो होठों के बीच बिजली का कंपन फँस गया हो। तुम्हारे हृदय में अपने प्रिय (पति) की सुंदर छवि झूल रही थी और तुम्हारा श्रृंगार बिना कुछ कहे ही सब कुछ व्यक्त कर रहा था। तुम्हारा सौंदर्य और प्रेम एक गहरी साँस के साथ प्रकट हो रहा था और तुम्हारा अंग-अंग एक गहरे विश्वास में बंधा हुआ स्थिर और शांत था।


अंश 2

माँ की कुल शिक्षा मैंने दी,
पुष्प-सेज तेरी स्वयं रची,
सोचा मन में, "वह शकुन्तला,
पर पाठ अन्य यह, अन्य कला।"
कुछ दिन रह गृह तू फिर समोद,
बैठी नानी की स्नेह-गोद।
मामा-मामी का रहा प्यार,
भर जलद धरा को ज्यों अपार।

  • शब्दार्थ:

    • कुल शिक्षा: परिवार की परंपरा और व्यवहार की शिक्षा।

    • पुष्प-सेज: फूलों की सेज, विवाह की सेज।

    • शकुन्तला: कालिदास के नाटक 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' की नायिका, जिसे उसके पिता कण्व ऋषि ने विदा किया था।

    • समोद: आनंद के साथ।

    • जलद: बादल।

    • धरा: धरती।

    • अपार: बहुत अधिक।

  • प्रसंग: कवि अपनी पितृ-धर्म की विवशता और सरोज के ननिहाल में मिले प्रेम का वर्णन कर रहे हैं।

  • व्याख्या:
    कवि कहते हैं कि तुम्हारी माँ (मनोहरा देवी) की मृत्यु बचपन में ही हो गई थी, इसलिए माँ द्वारा दी जाने वाली पारिवारिक शिक्षा भी मैंने ही तुम्हें दी। तुम्हारी विवाह की सेज भी मैंने ही सजाई। यह सब करते हुए मेरे मन में विचार आया कि तुम भी शकुंतला की तरह हो, जिसका पालन-पोषण उसके पिता ने किया था। लेकिन तुम्हारी कहानी उससे अलग है, क्योंकि शकुंतला को विदा करने वाले ऋषि कण्व थे, जबकि मैं एक अभावग्रस्त और संघर्षरत पिता हूँ। विवाह के कुछ दिन बाद तुम खुशी-खुशी अपनी नानी की प्यारी गोद में रहने चली गईं। वहाँ तुम्हें मामा-मामी का इतना प्यार मिला, जैसे बादल धरती को अपने अपार जल से भर देते हैं।


अंश 3

मुझ भाग्यहीन की तू सम्बल
युग वर्ष बाद जब हुई विकल,
दुख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहूँ आज, जो नहीं कही!
हो इसी कर्म पर वज्रपात
यदि धर्म, रहे नत सदा माथ।
इस पथ पर, मेरे कार्य सकल
हों भ्रष्ट शीत के-से शतदल!

  • शब्दार्थ:

    • सम्बल: सहारा, संबल।

    • विकल: व्याकुल, बेचैन।

    • वज्रपात: भारी विपत्ति, बिजली गिरना।

    • नत: झुका हुआ।

    • माथ: मस्तक, सिर।

    • सकल: सारे।

    • शतदल: कमल।

  • प्रसंग: अपनी पुत्री की मृत्यु के बाद कवि अपने जीवन के दुखों और असफलताओं को याद करते हुए विलाप कर रहे हैं।

  • व्याख्या:
    कवि कहते हैं कि हे पुत्री! मुझ जैसे भाग्यहीन पिता का एकमात्र सहारा तुम ही थीं। तुम्हारे जाने के वर्षों बाद आज जब मैं तुम्हारे लिए व्याकुल हूँ तो क्या कहूँ! मेरा तो पूरा जीवन ही दुःख की कहानी रहा है। जो बातें मैंने आज तक किसी से नहीं कहीं, उन्हें अब कहकर भी क्या लाभ? कवि अपने जीवन के संघर्षों पर ईश्वर को कोसते हुए कहते हैं कि मेरे इन्हीं कर्मों (साहित्य-कर्म) पर भले ही बिजली गिर जाए, यदि यही धर्म है तो मेरा मस्तक हमेशा उसके आगे झुका रहेगा। मेरे जीवन-पथ पर मेरे सभी अच्छे कार्य उसी तरह नष्ट हो जाएं, जैसे सर्दी के पाले से कमल का फूल नष्ट हो जाता है। यह कवि की चरम हताशा और वेदना को दिखाता है।


अंश 4

कन्ये, गत कर्मों का अर्पण,
कर, करता मैं तेरा तर्पण!

  • शब्दार्थ:

    • कन्ये: हे कन्या, हे पुत्री!

    • गत कर्मों का अर्पण: अपने पिछले सभी पुण्य कर्मों को समर्पित करना।

    • तर्पण: पितरों की शांति के लिए जल आदि देने की क्रिया; यहाँ काव्यांजलि।

  • प्रसंग: कविता के अंत में कवि अपनी पुत्री को अनोखे ढंग से श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं।

  • व्याख्या:
    कविता के अंत में कवि कहते हैं कि हे पुत्री! मैं अपने जीवन में किए गए सभी पुण्य कर्मों को तुम्हें समर्पित करके तुम्हारा तर्पण कर रहा हूँ। यह पारंपरिक तर्पण नहीं है, जहाँ जल और तिल से श्रद्धांजलि दी जाती है। यहाँ एक पिता अपनी पुत्री को अपने जीवन की पूरी कमाई, यानी अपने साहित्यिक पुण्य-कर्मों को सौंपकर उसे श्रद्धांजलि दे रहा है।

3. कवि का उद्देश्य

  • व्यक्तिगत दुःख की अभिव्यक्ति: कवि का मुख्य उद्देश्य अपनी पुत्री सरोज की मृत्यु से उपजे असहनीय दुःख और वेदना को व्यक्त करना है।

  • एक पिता की विवशता: वे एक ऐसे पिता की लाचारी को दिखाना चाहते हैं जो अपनी बेटी के लिए कुछ भी नहीं कर सका, न उसे माँ का प्यार दे सका और न ही पारंपरिक तरीके से उसका विवाह कर सका।

  • सामाजिक आलोचना: कवि ने विवाह जैसी संस्था में व्याप्त आडंबर और रूढ़ियों पर प्रहार किया है। वे अपने 'अ-पारंपरिक' विवाह के माध्यम से समाज को चुनौती देते हैं।

  • आत्म-विश्लेषण और अपराध-बोध: यह कविता कवि का आत्म-विश्लेषण भी है, जिसमें वे खुद को 'भाग्यहीन' कहकर अपनी असफलताओं को स्वीकार करते हैं।

  • काव्य-तर्पण: अपनी पुत्री को साहित्यिक श्रद्धांजलि देकर उसे अमर बना देना भी कवि का एक प्रमुख उद्देश्य है।

4. प्रतिपाद्य (Central Theme)

'सरोज स्मृति' का प्रतिपाद्य एक पिता के हृदय की मार्मिक वेदना है, जो उसकी पुत्री की अकाल मृत्यु पर फूट पड़ती है। यह कविता व्यक्तिगत दुःख और सामाजिक संघर्ष के बीच एक गहरा संबंध स्थापित करती है। इसमें वात्सल्य, वियोग-श्रृंगार, करुणा और विद्रोह के भाव एक साथ गुंथे हुए हैं। कविता का मूल संदेश यह है कि व्यक्तिगत जीवन की त्रासदियाँ अक्सर सामाजिक परिस्थितियों और संघर्षों का परिणाम होती हैं। एक संवेदनशील कवि-पिता का अपनी पुत्री की स्मृति में अपने संपूर्ण जीवन के पुण्य-कर्मों को अर्पित कर देना ही इस कविता का सर्वोच्च बिंदु और केंद्रीय भाव है। यह हिंदी साहित्य का एक ऐसा शोकगीत है जो व्यक्तिगत होते हुए भी सार्वभौमिक बन गया है।