सूरदास के पद



सप्रसंग व्याख्या एवं कठिन शब्दार्थ

पद - 1

पद्यांश:

ऊधौ, तुम हौ अति बड़भागी।
अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिन मन अनुरागी।
पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी।
ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि, बूँद न ताकौं लागी।
प्रीति-नदी मैं पाउँ न बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी।
'सूरदास' अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यौं पागी॥

कठिन शब्दार्थ:

  • ऊधौ: उद्धव (श्रीकृष्ण के मित्र)।

  • बड़भागी: भाग्यवान, सौभाग्यशाली (यहाँ व्यंग्य में अभागा)।

  • अपरस: अछूता, अनासक्त, दूर।

  • सनेह तगा: प्रेम का धागा या बंधन।

  • नाहिन: नहीं।

  • अनुरागी: प्रेम में डूबा हुआ।

  • पुरइनि पात: कमल का पत्ता।

  • ता रस देह न दागी: उस (जल) के रस से शरीर पर दाग नहीं लगता।

  • माहँ: के भीतर, में।

  • गागरि: मटका, घड़ा।

  • ताकौं: उसको।

  • प्रीति-नदी: प्रेम रूपी नदी।

  • पाउँ: पैर।

  • बोरयौ: डुबोया।

  • परागी: मुग्ध होना, मोहित होना।

  • भोरी: भोली-भाली।

  • गुर चाँटी ज्यौं पागी: जिस प्रकार गुड़ में चींटियाँ लिपट जाती हैं।

सप्रसंग व्याख्या:

  • संदर्भ: प्रस्तुत पद हमारी पाठ्यपुस्तक 'क्षितिज भाग-2' में संकलित महाकवि सूरदास द्वारा रचित 'सूरसागर' के 'भ्रमरगीत' प्रसंग से अवतरित है।

  • प्रसंग: जब श्रीकृष्ण के भेजे हुए दूत उद्धव गोपियों को निर्गुण ब्रह्म और योग का उपदेश देने आते हैं, तब गोपियाँ उन पर व्यंग्य करती हुई श्रीकृष्ण के प्रति अपने अनन्य प्रेम को प्रकट कर रही हैं।

  • व्याख्या: गोपियाँ उद्धव को संबोधित करते हुए व्यंग्यपूर्वक कहती हैं, "हे उद्धव! तुम तो बहुत भाग्यशाली हो।" वे कहती हैं कि तुम प्रेम के धागे से हमेशा दूर रहे और तुम्हारा मन कभी किसी के प्रेम में डूबा ही नहीं। तुम उस कमल के पत्ते के समान हो जो रहता तो जल के भीतर है, पर जल का एक भी दाग या बूँद उस पर नहीं ठहरती। तुम उस तेल से चुपड़ी हुई मटकी की तरह हो, जिसे जल में डुबोने पर भी पानी उसे स्पर्श नहीं कर पाता। यह तुम्हारा दुर्भाग्य ही है कि तुमने आज तक प्रेम रूपी नदी में अपना पैर तक नहीं डुबोया और न ही तुम्हारी दृष्टि कभी किसी के रूप-सौंदर्य पर मोहित हुई। सूरदास जी गोपियों के माध्यम से कहते हैं कि हम तो भोली-भाली ग्रामीण स्त्रियाँ हैं, जो श्रीकृष्ण के प्रेम में ठीक उसी प्रकार लिपट गई हैं, जैसे चींटियाँ गुड़ से चिपक जाती हैं और फिर उससे अलग नहीं हो पातीं, भले ही उन्हें अपने प्राण क्यों न त्यागने पड़ें।

  • काव्य-सौंदर्य (विशेष):

    1. भाषा: साहित्यिक ब्रजभाषा का सुंदर प्रयोग।

    2. रस: वियोग शृंगार।

    3. अलंकार: 'बड़भागी' में वक्रोक्ति अलंकार (कहा कुछ जाए और अर्थ कुछ और निकले)। 'पुरइनि पात' और 'ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि' में उपमा अलंकार। 'प्रीति-नदी' में रूपक अलंकार। 'गुर चाँटी ज्यौं पागी' में दृष्टांत अलंकार है।

    4. भाव: गोपियों का कृष्ण के प्रति एकनिष्ठ प्रेम और उद्धव के ज्ञान मार्ग पर तीखा व्यंग्य प्रकट हुआ है।


पद - 2

पद्यांश:

मन की मन ही माँझ रही।
कहिए जाइ कौन पै ऊधौ, नाहीं परत कही।
अवधि अधार आस आवन की, तन मन बिथा सही।
अब इन जोग सँदेसनि सुनि-सुनि, बिरहिनि बिरह दही।
चाहतीं हुतीं गुहारि जितहिं तैं, उत तैं धार बही।
'सूरदास' अब धीर धरहिं क्यौं, मरजादा न लही॥

कठिन शब्दार्थ:

  • माँझ: में, के अंदर।

  • जाइ: जाकर।

  • पै: पर, से।

  • अवधि: समय, कालावधि।

  • अधार: आधार, सहारा।

  • आस: आशा, उम्मीद।

  • आवन की: आने की।

  • बिथा: व्यथा, पीड़ा, दुःख।

  • सही: सहन की।

  • जोग सँदेसनि: योग के संदेश।

  • बिरहिनि: विरह में जीने वाली स्त्री।

  • बिरह दही: विरह की आग में जल रही हैं।

  • हुतीं: थीं।

  • गुहारि: रक्षा के लिए पुकारना।

  • जितहिं तैं: जहाँ से।

  • उत तैं: उधर से ही।

  • धार बही: (यहाँ योग की) प्रबल धारा बही।

  • धीर धरहिं: धैर्य धारण करें।

  • मरजादा: मर्यादा, प्रतिष्ठा।

  • न लही: नहीं रखी, नहीं रही।

सप्रसंग व्याख्या:

  • संदर्भ: पूर्ववत्।

  • प्रसंग: उद्धव द्वारा दिए गए योग के संदेश को सुनकर गोपियों की विरह की पीड़ा और भी बढ़ जाती है। वे अपनी निराशा और मन की व्यथा उद्धव के समक्ष व्यक्त कर रही हैं।

  • व्याख्या: गोपियाँ उद्धव से कहती हैं, "हे उद्धव! हमारे मन की बातें तो हमारे मन में ही रह गईं। हम अपने मन की यह पीड़ा किससे जाकर कहें? यह हमसे कहते भी नहीं बन रहा है। हम इतने लंबे समय से श्रीकृष्ण के लौटने की आशा को ही अपने जीवन का आधार बनाकर तन और मन की हर पीड़ा को सहन कर रही थीं। परन्तु अब तुम्हारे इन योग के संदेशों को सुन-सुनकर हम विरहिणियाँ विरह की आग में और भी जलने लगी हैं। हम जिधर से अपनी रक्षा के लिए पुकार लगाना चाहती थीं (अर्थात् श्रीकृष्ण से), उधर से ही योग-संदेश की यह प्रबल धारा बह निकली है। सूरदास जी के शब्दों में गोपियाँ कहती हैं कि अब हम धैर्य कैसे धारण करें, जब श्रीकृष्ण ने ही प्रेम की मर्यादा का पालन नहीं किया? (प्रेम की मर्यादा तो यह है कि प्रेम के बदले प्रेम दिया जाए)।"

  • काव्य-सौंदर्य (विशेष):

    1. भाषा: माधुर्यपूर्ण ब्रजभाषा।

    2. रस: करुण रस मिश्रित वियोग शृंगार।

    3. अलंकार: 'सुनि-सुनि' में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार। संपूर्ण पद में अनुप्रास अलंकार की छटा है।

    4. भाव: गोपियों की विरह-वेदना और निराशा की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है।


पद - 3

पद्यांश:

हमारैं हरि हारिल की लकरी।
मन क्रम बचन नंद-नंदन-उर, यह दृढ़ करि पकरी।
जागत सोवत स्वप्न दिवस-निसि, कान्ह-कान्ह जकरी।
सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्यौं करुई ककरी।
सू तो ब्याधि हमकौं लै आए, देखी सुनी न करी।
यह तौ 'सूर' तिनहिं लै सौंपौ, जिनके मन चकरी॥

कठिन शब्दार्थ:

  • हारिल की लकरी: हारिल पक्षी द्वारा अपने पंजों में हर समय दबाकर रखी जाने वाली लकड़ी, जो उसका एकमात्र सहारा होती है।

  • क्रम: कर्म से।

  • बचन: वचन से।

  • नंद-नंदन: नंद के पुत्र, श्रीकृष्ण।

  • उर: हृदय।

  • दृढ़ करि पकरी: मज़बूती से पकड़ लिया है।

  • दिवस-निसि: दिन-रात।

  • जकरी: रटती रहती हैं, जपती रहती हैं।

  • जोग: योग।

  • करुई ककरी: कड़वी ककड़ी।

  • सू: वह।

  • ब्याधि: बीमारी, रोग।

  • करी: भोगा, अनुभव किया।

  • तिनहिं: उनको।

  • चकरी: चंचल, अस्थिर, चक्कर खाने वाला।

सप्रसंग व्याख्या:

  • संदर्भ: पूर्ववत्।

  • प्रसंग: गोपियाँ उद्धव के ज्ञान और योग के मार्ग को पूरी तरह से नकारते हुए, श्रीकृष्ण के प्रति अपनी अनन्य और एकनिष्ठ भक्ति का परिचय दे रही हैं।

  • व्याख्या: गोपियाँ कहती हैं, "हे उद्धव! हमारे लिए तो श्रीकृष्ण हारिल पक्षी की उस लकड़ी के समान हैं, जिसे वह किसी भी दशा में नहीं छोड़ता। हमने भी नंद के पुत्र श्रीकृष्ण को अपने मन, कर्म और वचन से अपने हृदय में दृढ़तापूर्वक बसा लिया है। हम जागते-सोते, सपने में, दिन में और रात में, हर समय केवल 'कान्हा-कान्हा' की ही रट लगाए रहती हैं। तुम्हारा यह योग का संदेश तो हमें सुनने में ऐसा लगता है जैसे कोई कड़वी ककड़ी हो, जिसे निगला नहीं जा सकता। तुम तो हमारे लिए एक ऐसी बीमारी ले आए हो, जिसे हमने न तो पहले कभी देखा है, न उसके बारे में सुना है और न ही कभी उसका अनुभव किया है। सूरदास जी कहते हैं कि गोपियों ने उद्धव से कहा कि इस योग-साधना को तो तुम जाकर उन्हें सौंपो, जिनका मन चंचल है और एक स्थान पर स्थिर नहीं रहता। हमारा मन तो श्रीकृष्ण में पूरी तरह स्थिर है, हमें इसकी कोई आवश्यकता नहीं।"

  • काव्य-सौंदर्य (विशेष):

    1. भाषा: प्रवाहमयी ब्रजभाषा।

    2. अलंकार: 'हारिल की लकरी' में रूपक अलंकार। 'ज्यौं करुई ककरी' में उपमा अलंकार। 'कान्ह-कान्ह' में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार। 'नंद-नंदन' में अनुप्रास अलंकार

    3. भाव: गोपियों के एकनिष्ठ प्रेम की पराकाष्ठा का अत्यंत सजीव चित्रण हुआ है।

    4. शैली: पद में गेयता एवं संगीतात्मकता का गुण विद्यमान है।


पद - 4

पद्यांश:

हरि हैं राजनीति पढ़ि आए।
समुझी बात कहत मधुकर के, समाचार सब पाए।
इक अति चतुर हुते पहिलैं ही, अब गुरु ग्रंथ पढ़ाए।
बड़ी बुद्धि जानी जो उनकी, जोग-सँदेस पठाए।
ऊधौ भले लोग आगे के, पर हित डोलत धाए।
अब अपनै मन फेर पाइहैं, चलत जु हुते चुराए।
ते क्यौं अनीति करैं आपुन, जे और अनीति छुड़ाए।
राजधरम तौ यहै 'सूर', जो प्रजा न जाहिं सताए॥

कठिन शब्दार्थ:

  • मधुकर: भौंरा (यहाँ उद्धव के लिए व्यंग्य में प्रयुक्त)।

  • हुते: थे।

  • पहिलैं ही: पहले से ही।

  • पठाए: भेजे।

  • आगे के: पहले के, पुराने जमाने के।

  • पर हित: दूसरों की भलाई के लिए।

  • डोलत धाए: घूमते-फिरते थे।

  • फेर पाइहैं: फिर से पा लेंगी।

  • जु हुते चुराए: जो चुरा लिए थे।

  • आपुन: स्वयं, वे खुद।

  • अनीति: अन्याय।

  • राजधरम: राजा का धर्म या कर्तव्य।

  • जाहिं सताए: सताई जाए।

सप्रसंग व्याख्या:

  • संदर्भ: पूर्ववत्।

  • प्रसंग: उद्धव की बातों से निराश होकर गोपियाँ अब श्रीकृष्ण पर ही तीखा राजनीतिक और सामाजिक व्यंग्य कर रही हैं और उन्हें राजधर्म की याद दिला रही हैं।

  • व्याख्या: गोपियाँ आपस में कहती हैं, "सखी! लगता है श्रीकृष्ण ने अब राजनीति शास्त्र पढ़ लिया है। देखो न, इस भौंरे (उद्धव) के द्वारा जो बातें कही जा रही हैं, उन्हें सुनकर क्या हम सारी बात समझ नहीं गईं? एक तो वे पहले से ही बहुत चतुर थे और अब उन्होंने (मथुरा जाकर) राजनीति के बड़े-बड़े ग्रंथ भी पढ़ लिए हैं। उनकी बढ़ी हुई बुद्धि का पता तो इसी बात से चल जाता है कि उन्होंने हम जैसी युवतियों के लिए योग का संदेश भेजा है। हे उद्धव! पुराने जमाने के लोग कितने भले थे, जो दूसरों की भलाई के लिए दौड़े चले आते थे। और एक ये श्रीकृष्ण हैं जो हमें सता रहे हैं। चलो, कम-से-कम इसी बहाने हम अपना वह मन तो वापस पा लेंगी, जिसे श्रीकृष्ण मथुरा जाते समय अपने साथ चुराकर ले गए थे। पर हमें यह समझ नहीं आता कि जो श्रीकृष्ण दूसरों को अन्याय से बचाते हैं, वे स्वयं हम पर यह अन्याय क्यों कर रहे हैं? सूरदास जी के अनुसार, गोपियाँ अंत में कहती हैं कि सच्चा राजधर्म तो वही है, जिसमें प्रजा को किसी भी प्रकार से सताया न जाए।"

  • काव्य-सौंदर्य (विशेष):

    1. भाषा: सरल एवं व्यंग्यात्मक ब्रजभाषा।

    2. अलंकार: 'गुरु ग्रंथ' में अनुप्रास अलंकार। पूरे पद में वक्रोक्ति और व्यंग्य का भाव प्रमुख है।

    3. भाव: गोपियों की वाक्-चातुर्य (बात करने की चतुराई) और तर्कशीलता का उत्कृष्ट उदाहरण है। राजधर्म की बात कहकर गोपियों ने श्रीकृष्ण को निरुत्तर कर दिया है।

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