कक्षा -11 नमक का दारोगा



कक्षा 11 (आरोह) - पाठ 1: नमक का दारोगा

(लेखक: मुंशी प्रेमचंद)

NCERT प्रश्न-उत्तर


पाठ के साथ

प्रश्न 1. कहानी का कौन-सा पात्र आपको सर्वाधिक प्रभावित करता है और क्यों?

उत्तर: कहानी में हमें सबसे अधिक प्रभावित करने वाला पात्र कहानी का नायक, मुंशी वंशीधर है। इसके निम्नलिखित कारण हैं:

  1. ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा: वंशीधर एक अत्यंत ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति है। पिता द्वारा दी गई रिश्वतखोरी की सलाह के बावजूद, वह अपने सिद्धांतों पर अडिग रहता है और ईमानदारी को ही अपना धर्म समझता है।

  2. निर्भीकता और साहस: वह उस समय के सबसे प्रतिष्ठित और प्रभावशाली व्यक्ति पंडित अलोपीदीन को गिरफ्तार करने का साहस दिखाता है। वह जानता है कि इसका परिणाम उसके लिए बुरा हो सकता है, फिर भी वह अपने कर्तव्य से पीछे नहीं हटता।

  3. सिद्धांतों पर अडिग रहना: नौकरी छूट जाने के बाद भी वंशीधर अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं करता। वह जानता है कि उसने जो किया वह सही था, इसलिए उसे किसी बात का पछतावा नहीं होता।

  4. स्वाभिमान: वह एक स्वाभिमानी युवक है जो किसी भी कीमत पर अपने आत्म-सम्मान को बेचना नहीं चाहता।

इन्हीं गुणों के कारण वंशीधर का चरित्र हमें सबसे अधिक प्रभावित करता है, क्योंकि वह आज के समाज के लिए एक आदर्श प्रस्तुत करता है।

प्रश्न 2. 'नमक का दारोगा' कहानी में पंडित अलोपीदीन के व्यक्तित्व के कौन-से दो पहलू (पक्ष) उभरकर आते हैं?

उत्तर: 'नमक का दारोगा' कहानी में पंडित अलोपीदीन के व्यक्तित्व के दो महत्वपूर्ण पहलू सामने आते हैं:

1. नकारात्मक पहलू (भ्रष्ट और धन का पुजारी):
कहानी की शुरुआत में पंडित अलोपीदीन एक भ्रष्ट, चालाक और धन के बल पर कुछ भी कर सकने वाले व्यक्ति के रूप में सामने आते हैं। वह गैर-कानूनी ढंग से नमक का व्यापार करते हैं और मानते हैं कि धन (लक्ष्मी) के आगे दुनिया की हर चीज, यहाँ तक कि न्याय भी झुक जाता है। वह वंशीधर को चालीस हज़ार रुपये तक की रिश्वत देने की कोशिश करते हैं और जब असफल होते हैं, तो अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके अदालत से बरी हो जाते हैं और वंशीधर को नौकरी से निकलवा देते हैं।

2. सकारात्मक पहलू (गुणों का पारखी और प्रशंसक):
कहानी के अंत में अलोपीदीन का एक प्रशंसनीय और सकारात्मक पक्ष उभरकर आता है। वह वंशीधर की ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा से बहुत प्रभावित होते हैं। उनमें बदले की भावना नहीं है, बल्कि वह गुणों के पारखी हैं। वह स्वयं वंशीधर के घर जाते हैं और अपनी गलती स्वीकार करते हुए उन्हें अपनी सारी जायदाद का स्थायी मैनेजर नियुक्त करते हैं। यह उनके व्यक्तित्व के उस पहलू को दिखाता है जो ईमानदारी और चरित्र का सम्मान करना जानता है।

प्रश्न 3. कहानी के लगभग सभी पात्र समाज की किसी-न-किसी सच्चाई को उजागर करते हैं। निम्नलिखित पात्रों के संदर्भ में पाठ से उस अंश को उद्धृत करते हुए बताइए कि ये समाज की किस सच्चाई को उजागर करते हैं -
(क) वृद्ध मुंशी (ख) वक़ील (ग) शहर की भीड़

उत्तर:

(क) वृद्ध मुंशी:
वृद्ध मुंशी समाज के उन लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो व्यावहारिकता और अनुभव के नाम पर भ्रष्टाचार को जीवन का एक हिस्सा मान चुके हैं। वे ईमानदारी जैसे आदर्शों को व्यर्थ समझते हैं।

  • समाज की सच्चाई: समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार और ऊपरी आय को महत्व देना।

  • पाठ का अंश: "बेटा! घर की दुर्दशा देख रहे हो... नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर का मज़ार है। निगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी चाहिए। ऐसा काम ढूँढ़ना जहाँ कुछ ऊपरी आय हो... ऊपरी आय बहता हुआ स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है।"

(ख) वक़ील:
वकील समाज के उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं जो न्याय और सच्चाई के बजाय अपने मुवक्किल के धन को अधिक महत्व देते हैं। उनके लिए न्याय बिकाऊ है।

  • समाज की सच्चाई: न्याय व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार, जहाँ पैसे के बल पर न्याय को खरीदा जा सकता है।

  • पाठ का अंश: "वकीलों ने यह फैसला सुना और उछल पड़े। पंडित अलोपीदीन मुस्कुराते हुए बाहर निकले... जब वंशीधर बाहर निकले तो चारों ओर से उन पर व्यंग्यबाणों की वर्षा होने लगी।" यह अंश दिखाता है कि वकीलों को सत्य की हार और धन की जीत पर खुशी हुई।

(ग) शहर की भीड़:
शहर की भीड़ समाज की उस मानसिकता को उजागर करती है जो तमाशबीन और अस्थिर होती है। वे किसी भी घटना पर तुरंत अपनी प्रतिक्रिया देते हैं, लेकिन उनकी यह प्रतिक्रिया केवल क्षणिक होती है।

  • समाज की सच्चाई: समाज का दोहरा चरित्र, निंदा और प्रशंसा में तुरंत बदल जाना।

  • पाठ का अंश: जब अलोपीदीन पकड़े गए तो "दुनिया सोती थी, पर दुनिया की जीभ जागती थी। सवेरे देखिए तो बालक-वृद्ध सबके मुँह से यही बात सुनाई देती थी। जिसे देखिए, वही पंडितजी के इस व्यवहार पर टीका-टिप्पणी कर रहा था..."। लेकिन जब वे बरी हो गए, तो वही भीड़ शांत हो गई, जो उनके दोहरे चरित्र को दिखाती है।

प्रश्न 4. निम्न पंक्तियों को ध्यान से पढ़िए -
"नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर का मज़ार है। निगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी चाहिए। ऐसा काम ढूँढ़ना जहाँ कुछ ऊपरी आय हो। मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चाँद है, जो एक दिन दिखाई देता है और घटते-घटते लुप्त हो जाता है। ऊपरी आय बहता हुआ स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है। वेतन मनुष्य देता है, इसी से उसमें वृद्धि नहीं होती। ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है, इसी से उसकी बरकत होती है, तुम स्वयं विद्वान हो, तुम्हें क्या समझाऊँ।"
(क) यह किसकी उक्ति है?
(ख) 'मासिक वेतन को पूर्णमासी का चाँद' क्यों कहा गया है?
(ग) क्या आप एक पिता के इस वक्तव्य से सहमत हैं?

उत्तर:
(क) यह उक्ति मुंशी वंशीधर के वृद्ध पिता (वृद्ध मुंशी) की है, जो वे वंशीधर को नौकरी पर जाने से पहले दे रहे हैं।

(ख) 'मासिक वेतन को पूर्णमासी का चाँद' इसलिए कहा गया है क्योंकि जिस तरह पूर्णिमा का चाँद महीने में केवल एक बार पूरा दिखाई देता है और फिर धीरे-धीरे घटते हुए अमावस्या तक गायब हो जाता है, उसी तरह महीने में एक बार मिलने वाला वेतन भी शुरुआती दिनों में पूरा होता है और फिर खर्च होते-होते महीने के अंत तक समाप्त हो जाता है।

(ग) नहीं, हम एक पिता के इस वक्तव्य से बिल्कुल सहमत नहीं हैं। एक पिता का कर्तव्य अपने पुत्र को ईमानदारी और सही रास्ते पर चलने की शिक्षा देना होता है, न कि भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी की। वृद्ध मुंशी का यह कथन समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार को बढ़ावा देता है और नैतिक मूल्यों का पतन करता है। यह एक गैर-जिम्मेदाराना और अनैतिक सलाह है जो किसी भी युवा को गलत रास्ते पर ले जा सकती है।


पाठ के आस-पास

प्रश्न 1. 'नमक का दारोगा' कहानी के कोई दो अन्य शीर्षक बताते हुए उसके आधार को भी स्पष्ट कीजिए।

उत्तर: 'नमक का दारोगा' कहानी के दो अन्य शीर्षक हो सकते हैं:

  1. कर्तव्यनिष्ठा का पुरस्कार: यह शीर्षक इसलिए उपयुक्त है क्योंकि कहानी का मुख्य संदेश यही है कि ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा का फल अंत में मीठा होता है। वंशीधर को अपनी कर्तव्यनिष्ठा के कारण नौकरी गँवानी पड़ती है, लेकिन अंत में पंडित अलोपीदीन उसी गुण से प्रभावित होकर उसे पहले से भी बेहतर और सम्मानजनक पद देते हैं।

  2. धर्म की जीत: इस कहानी में धर्म और धन के बीच एक संघर्ष दिखाया गया है। वंशीधर 'धर्म' (ईमानदारी, कर्तव्य) का प्रतीक है और पंडित अलोपीदीन 'धन' (भ्रष्टाचार, शक्ति) का। भले ही अदालत में धन की जीत होती है, लेकिन अंत में जब अलोपीदीन स्वयं वंशीधर के धर्म के आगे सिर झुकाते हैं, तो यह 'धर्म की जीत' ही होती है।

प्रश्न 2. कहानी के अंत में अलोपीदीन के वंशीधर को मैनेजर नियुक्त करने के पीछे क्या कारण हो सकते हैं? तर्क सहित उत्तर दीजिए। आप इस कहानी का अंत किस प्रकार करते?

उत्तर:
पंडित अलोपीदीन द्वारा वंशीधर को मैनेजर नियुक्त करने के पीछे निम्नलिखित कारण हो सकते हैं:

  • आत्मग्लानि: अलोपीदीन को अपनी गलती का अहसास हुआ कि उन्होंने एक ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति को कष्ट पहुँचाया है। इस आत्मग्लानि को दूर करने के लिए उन्होंने वंशीधर को सम्मानजनक पद दिया।

  • गुणों की परख: अलोपीदीन एक अनुभवी और पारखी व्यक्ति थे। उन्होंने समझ लिया था कि वंशीधर जैसा ईमानदार, स्वाभिमानी और भरोसेमंद व्यक्ति मिलना दुर्लभ है। अपनी विशाल संपत्ति की देखभाल के लिए उन्हें ऐसे ही एक व्यक्ति की आवश्यकता थी जिस पर आँख बंद करके भरोसा किया जा सके।

  • सम्मान की भावना: वंशीधर के अडिग चरित्र ने अलोपीदीन को भीतर से प्रभावित किया। वह वंशीधर का सम्मान करने लगे थे और उसे अपनी सेवा में रखकर वे स्वयं को सम्मानित महसूस करना चाहते थे।

कहानी का दूसरा अंत:
यदि मुझे इस कहानी का अंत करना होता तो मैं भी इसे प्रेमचंद जी की तरह ही सकारात्मक रखता। हालाँकि, एक वैकल्पिक अंत यह हो सकता था:

वंशीधर अलोपीदीन का प्रस्ताव विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर देते और कहते, "पंडित जी, मैं आपके सम्मान का आभारी हूँ, लेकिन मैंने सरकारी नमक की दलाली रोकने की शपथ ली थी, अब आपकी निजी जायदाद में वही कार्य कैसे कर सकता हूँ? मैं कोई और छोटा-मोटा काम करके अपना जीवनयापन कर लूँगा, लेकिन अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं करूँगा।" इससे वंशीधर का चरित्र और भी ऊंचा उठ जाता, लेकिन प्रेमचंद का अंत यह संदेश देता है कि अच्छे गुण अंततः समाज द्वारा पहचाने और पुरस्कृत किए जाते हैं।


कक्षा - 12 सरोज स्मृति



पाठ - 2: सरोज स्मृति (Sarij Smriti)

यह कविता आधुनिक हिंदी साहित्य के सबसे महत्वपूर्ण शोकगीतों (Elegies) में से एक है। यह केवल एक पिता का अपनी पुत्री के लिए विलाप नहीं, बल्कि कवि के अपने जीवन-संघर्ष, समाज की निष्ठुरता और एक पिता की विवशता का मार्मिक दस्तावेज़ है।

1. कवि का साहित्यिक परिचय: सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'

  • जीवनकाल: 1899 - 1961

  • युग: छायावाद के चार प्रमुख स्तंभों (पंत, प्रसाद, वर्मा, निराला) में से एक।

  • साहित्यिक विशेषताएँ:

    1. विद्रोही और क्रांतिकारी स्वर: निराला जी ने अपनी कविताओं में सामाजिक रूढ़ियों, परंपराओं और शोषण के विरुद्ध आवाज़ उठाई। उनका व्यक्तित्व और काव्य दोनों ही फक्कड़ और विद्रोही थे।

    2. मुक्त छंद के प्रवर्तक: उन्होंने हिंदी कविता को छंद के बंधनों से मुक्त किया और 'मुक्त छंद' (जिसे 'रबर छंद' या 'केंचुआ छंद' कहकर आलोचकों ने मज़ाक उड़ाया) की शुरुआत की। 'जूही की कली' उनकी मुक्त छंद की प्रसिद्ध प्रारंभिक कविता है।

    3. दार्शनिकता और रहस्यवाद: उनकी कविताओं में अद्वैत दर्शन और रहस्यवाद की गहरी छाप मिलती है, जैसे 'राम की शक्ति पूजा' में।

    4. प्रगतिवादी चेतना: उन्होंने शोषितों, दलितों और किसानों की पीड़ा को अपनी कविताओं का विषय बनाया। 'वह तोड़ती पत्थर' इसका उत्कृष्ट उदाहरण है।

    5. भाषा: निराला की भाषा के दो रूप मिलते हैं - एक ओर 'राम की शक्ति पूजा' जैसी तत्सम और क्लिष्ट संस्कृतनिष्ठ भाषा, तो दूसरी ओर 'कुकुरमुत्ता' जैसी आम बोलचाल की व्यंग्यात्मक भाषा।

  • प्रमुख रचनाएँ:

    • काव्य-संग्रह: अनामिका, परिमल, गीतिका, कुकुरमुत्ता, अणिमा, नए पत्ते, बेला, अर्चना, आराधना।

    • प्रसिद्ध कविताएँ: राम की शक्ति पूजा, सरोज स्मृति, बादल राग, वह तोड़ती पत्थर, जूही की कली।

    • गद्य: बिल्लेसुर बकरिहा (उपन्यास), चतुरी चमार (कहानी-संग्रह)।

2. 'सरोज स्मृति' की व्याख्या

'सरोज स्मृति' निराला जी ने अपनी 18 वर्षीय पुत्री सरोज की मृत्यु के बाद लिखी थी। यह कविता उनकी बेटी की स्मृति में एक काव्यात्मक श्रद्धांजलि (तर्पण) है। यहाँ पाठ्यक्रम में शामिल महत्वपूर्ण अंशों की व्याख्या दी गई है।


अंश 1

देखा विवाह आमूल नवल,
तुझ पर शुभ पड़ा कलश का जल।
देखती मुझे तू हँसी मंद,
होंठों में बिजली फँसी स्पंद।
उर में भर झूली छवि सुंदर,
प्रिय की अशब्द श्रृंगार-मुखर।
तू खुली एक उच्छ्वास संग,
विश्वास-स्तब्ध बँध अंग-अंग।

  • शब्दार्थ:

    • आमूल: पूरी तरह से, जड़ से।

    • नवल: नया।

    • स्पंद: कंपन, धड़कन।

    • उर: हृदय।

    • अशब्द: बिना शब्दों के।

    • मुखर: प्रकट करने वाला, बोलने वाला।

    • उच्छ्वास: गहरी साँस, आनंद की अभिव्यक्ति।

    • स्तब्ध: स्थिर, चकित।

  • प्रसंग: कवि अपनी पुत्री सरोज के विवाह को याद कर रहे हैं, जो बहुत ही सादे और नए ढंग से हुआ था।

  • व्याख्या:
    कवि कहते हैं कि हे पुत्री! मैंने तुम्हारा विवाह पूरी तरह से नए रूप में देखा। यह पारंपरिक विवाह जैसा नहीं था, इसमें कोई शोर-शराबा या आडंबर नहीं था। तुम पर जब मांगलिक कलश का शुभ जल डाला गया, तब तुम मुझे देखकर धीरे से मुस्कुराई। तुम्हारी उस मुस्कान में ऐसी चमक थी मानो होठों के बीच बिजली का कंपन फँस गया हो। तुम्हारे हृदय में अपने प्रिय (पति) की सुंदर छवि झूल रही थी और तुम्हारा श्रृंगार बिना कुछ कहे ही सब कुछ व्यक्त कर रहा था। तुम्हारा सौंदर्य और प्रेम एक गहरी साँस के साथ प्रकट हो रहा था और तुम्हारा अंग-अंग एक गहरे विश्वास में बंधा हुआ स्थिर और शांत था।


अंश 2

माँ की कुल शिक्षा मैंने दी,
पुष्प-सेज तेरी स्वयं रची,
सोचा मन में, "वह शकुन्तला,
पर पाठ अन्य यह, अन्य कला।"
कुछ दिन रह गृह तू फिर समोद,
बैठी नानी की स्नेह-गोद।
मामा-मामी का रहा प्यार,
भर जलद धरा को ज्यों अपार।

  • शब्दार्थ:

    • कुल शिक्षा: परिवार की परंपरा और व्यवहार की शिक्षा।

    • पुष्प-सेज: फूलों की सेज, विवाह की सेज।

    • शकुन्तला: कालिदास के नाटक 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' की नायिका, जिसे उसके पिता कण्व ऋषि ने विदा किया था।

    • समोद: आनंद के साथ।

    • जलद: बादल।

    • धरा: धरती।

    • अपार: बहुत अधिक।

  • प्रसंग: कवि अपनी पितृ-धर्म की विवशता और सरोज के ननिहाल में मिले प्रेम का वर्णन कर रहे हैं।

  • व्याख्या:
    कवि कहते हैं कि तुम्हारी माँ (मनोहरा देवी) की मृत्यु बचपन में ही हो गई थी, इसलिए माँ द्वारा दी जाने वाली पारिवारिक शिक्षा भी मैंने ही तुम्हें दी। तुम्हारी विवाह की सेज भी मैंने ही सजाई। यह सब करते हुए मेरे मन में विचार आया कि तुम भी शकुंतला की तरह हो, जिसका पालन-पोषण उसके पिता ने किया था। लेकिन तुम्हारी कहानी उससे अलग है, क्योंकि शकुंतला को विदा करने वाले ऋषि कण्व थे, जबकि मैं एक अभावग्रस्त और संघर्षरत पिता हूँ। विवाह के कुछ दिन बाद तुम खुशी-खुशी अपनी नानी की प्यारी गोद में रहने चली गईं। वहाँ तुम्हें मामा-मामी का इतना प्यार मिला, जैसे बादल धरती को अपने अपार जल से भर देते हैं।


अंश 3

मुझ भाग्यहीन की तू सम्बल
युग वर्ष बाद जब हुई विकल,
दुख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहूँ आज, जो नहीं कही!
हो इसी कर्म पर वज्रपात
यदि धर्म, रहे नत सदा माथ।
इस पथ पर, मेरे कार्य सकल
हों भ्रष्ट शीत के-से शतदल!

  • शब्दार्थ:

    • सम्बल: सहारा, संबल।

    • विकल: व्याकुल, बेचैन।

    • वज्रपात: भारी विपत्ति, बिजली गिरना।

    • नत: झुका हुआ।

    • माथ: मस्तक, सिर।

    • सकल: सारे।

    • शतदल: कमल।

  • प्रसंग: अपनी पुत्री की मृत्यु के बाद कवि अपने जीवन के दुखों और असफलताओं को याद करते हुए विलाप कर रहे हैं।

  • व्याख्या:
    कवि कहते हैं कि हे पुत्री! मुझ जैसे भाग्यहीन पिता का एकमात्र सहारा तुम ही थीं। तुम्हारे जाने के वर्षों बाद आज जब मैं तुम्हारे लिए व्याकुल हूँ तो क्या कहूँ! मेरा तो पूरा जीवन ही दुःख की कहानी रहा है। जो बातें मैंने आज तक किसी से नहीं कहीं, उन्हें अब कहकर भी क्या लाभ? कवि अपने जीवन के संघर्षों पर ईश्वर को कोसते हुए कहते हैं कि मेरे इन्हीं कर्मों (साहित्य-कर्म) पर भले ही बिजली गिर जाए, यदि यही धर्म है तो मेरा मस्तक हमेशा उसके आगे झुका रहेगा। मेरे जीवन-पथ पर मेरे सभी अच्छे कार्य उसी तरह नष्ट हो जाएं, जैसे सर्दी के पाले से कमल का फूल नष्ट हो जाता है। यह कवि की चरम हताशा और वेदना को दिखाता है।


अंश 4

कन्ये, गत कर्मों का अर्पण,
कर, करता मैं तेरा तर्पण!

  • शब्दार्थ:

    • कन्ये: हे कन्या, हे पुत्री!

    • गत कर्मों का अर्पण: अपने पिछले सभी पुण्य कर्मों को समर्पित करना।

    • तर्पण: पितरों की शांति के लिए जल आदि देने की क्रिया; यहाँ काव्यांजलि।

  • प्रसंग: कविता के अंत में कवि अपनी पुत्री को अनोखे ढंग से श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं।

  • व्याख्या:
    कविता के अंत में कवि कहते हैं कि हे पुत्री! मैं अपने जीवन में किए गए सभी पुण्य कर्मों को तुम्हें समर्पित करके तुम्हारा तर्पण कर रहा हूँ। यह पारंपरिक तर्पण नहीं है, जहाँ जल और तिल से श्रद्धांजलि दी जाती है। यहाँ एक पिता अपनी पुत्री को अपने जीवन की पूरी कमाई, यानी अपने साहित्यिक पुण्य-कर्मों को सौंपकर उसे श्रद्धांजलि दे रहा है।

3. कवि का उद्देश्य

  • व्यक्तिगत दुःख की अभिव्यक्ति: कवि का मुख्य उद्देश्य अपनी पुत्री सरोज की मृत्यु से उपजे असहनीय दुःख और वेदना को व्यक्त करना है।

  • एक पिता की विवशता: वे एक ऐसे पिता की लाचारी को दिखाना चाहते हैं जो अपनी बेटी के लिए कुछ भी नहीं कर सका, न उसे माँ का प्यार दे सका और न ही पारंपरिक तरीके से उसका विवाह कर सका।

  • सामाजिक आलोचना: कवि ने विवाह जैसी संस्था में व्याप्त आडंबर और रूढ़ियों पर प्रहार किया है। वे अपने 'अ-पारंपरिक' विवाह के माध्यम से समाज को चुनौती देते हैं।

  • आत्म-विश्लेषण और अपराध-बोध: यह कविता कवि का आत्म-विश्लेषण भी है, जिसमें वे खुद को 'भाग्यहीन' कहकर अपनी असफलताओं को स्वीकार करते हैं।

  • काव्य-तर्पण: अपनी पुत्री को साहित्यिक श्रद्धांजलि देकर उसे अमर बना देना भी कवि का एक प्रमुख उद्देश्य है।

4. प्रतिपाद्य (Central Theme)

'सरोज स्मृति' का प्रतिपाद्य एक पिता के हृदय की मार्मिक वेदना है, जो उसकी पुत्री की अकाल मृत्यु पर फूट पड़ती है। यह कविता व्यक्तिगत दुःख और सामाजिक संघर्ष के बीच एक गहरा संबंध स्थापित करती है। इसमें वात्सल्य, वियोग-श्रृंगार, करुणा और विद्रोह के भाव एक साथ गुंथे हुए हैं। कविता का मूल संदेश यह है कि व्यक्तिगत जीवन की त्रासदियाँ अक्सर सामाजिक परिस्थितियों और संघर्षों का परिणाम होती हैं। एक संवेदनशील कवि-पिता का अपनी पुत्री की स्मृति में अपने संपूर्ण जीवन के पुण्य-कर्मों को अर्पित कर देना ही इस कविता का सर्वोच्च बिंदु और केंद्रीय भाव है। यह हिंदी साहित्य का एक ऐसा शोकगीत है जो व्यक्तिगत होते हुए भी सार्वभौमिक बन गया है।