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पदों का सार |
(१) पहले पद में गोपियाँ उद्धव से कहतीं हैं कि वे बहुत भाग्यशाली हैं जो कृष्ण के पास रहकर भी उनके प्रेम में नहीं बंधे। कमल का पत्ता जैसे जल में रहकर भी उससे अछूता रहता है, तेल की मटकी (गगरी) पानी में डुबोए जाने पर भी नहीं भीगती, उसी तरह वे भी कृष्ण के प्रेम से प्रभावित नहीं हुए। वे कहती हैं कि हम भोली ब्रज की गोपियाँ कृष्ण के अनुराग में ऐसे कृष्णमय हो गई हैं, जैसे गुड़ की मिठास से आकर्षित होकर चींटी गुड़ में चिपक जाती हैं उसी प्रकार हम भी कृष्ण प्रेम में उनसे अलग नहीं हो सकती।
(२) दूसरे पद में गोपियाँ कहती हैैं कि उनके मन की इच्छाएँँ तो मन मेें ही दबकर रह गई हैैं। उन्हेंं कृष्ण के लौटने की आशा थी और यही आशा उनका जीवन थी। परंतु अब उद्धव के सन्देेेश ने तो जैसे सब पर पानी ही फेर दिया है। विरह की अग्नि ने मर्यादाओं को तोड़ दिया है। सब्र का बाँध टूटा जा रहा है। कृष्ण के प्रति प्रेम जो कभी उन्होंने किसी पर प्रकट नहीं किया था, अब उलाहनों के साथ सब पर प्रकट हो रहा है।
(३) तीसरे पद में गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि कृष्ण ही हमारे लिए एक मात्र सहारा हैं। जैसे हारिल पक्षी अपनी लकड़ी के टुकड़े को कभी भी नहीं छोड़ता, उसी प्रकार हम भी कृष्ण को कभी भी अपने हृदय से छोड़ नही सकतीं। दिन रात, सोते जागते हम उनका ही नाम रटती हैं। तुम्हारी योग की बाते हमारे लिए कड़वी ककड़ी के जैसी है। ये बातें हमें अच्छी नही लगती। जिनका मन चंचल है, उन्हें यह योग की शिक्षा दीजिए।
(४) चौथे पद में गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि अब तुम्हारी बातों से हम समझ गई हैं कि मथुरा जाकर कृष्ण ने राजनीति भी सीख ली है। वे पहले से ही चतुर हैं। और अब अधिक चतुर बन गए हैं। तभी तो तुम्हें यहाँ हमारे पास योग का संदेश देकर भेजा है। पहले हम अपना मन तो उनसे वापस ले लें, जो उन्होनें मथुरा जाने से पहले चुरा लिया था। वे दूसरों से तो अनीति छोड़ने की बात करते हैं, किंतु हमसे वे अन्याय करते हैं। हमारे साथ ऐसा व्यवहार करना, हमें सताना और हमें विरह की आग में जलने देना क्या अन्याय नहीं है ? एक राजा का धर्म प्रजा का हित करना होता है, उसे सताना नहीं होता है। तो कृष्ण अपना राजधर्म किस प्रकार निभा रहे हैं ? वे तो हम सब गोपियों को सता रहे हैं। क्या यह उनका राजधर्म अथवा न्याय हैं ?
Very nice 👌👌
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