रस विवेचन

【रस विवेचन】
रस की परिभाषा –

रस का सम्बंध आनन्द से है | कविता को पढने या नाटक को देखने से पाठक , श्रोता अथवा दर्शक को जो आनन्द प्राप्त होता है | उसे ही रस कहते है |

रस और उसका स्थाई भाव – प्राचीन भारतीय विद्वानों ने नौ रस माने है | जिसका विवरण निम्नलिखित है –

रस का नाम स्थाई भाव

1.   श्रृंगार - रति (प्रेम)
2.   हास्य - हास
3.   करूण - शोक
4.   रौद्र - क्रोध
5.   वीर - उत्साह
6.   भयानक - भय
7.   वीभत्स - जुगुप्सा (घृणा )
8.   अद्भुत - विस्मय
9.   शान्त - निर्वेद

करुण रस की परिभाषा – 

‘शोक’ नामक स्थाई भाव, विभाव , अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से रस रुप मे परिणत हो तो वहाँ पर करुण रस होता है | अर्थात् किसी प्रिय वस्तु या व्यक्ति के नाश होने से हृदय के अंदर उत्पन्न क्षोभ को करुण रस कहते है |

करुण रस के उदाहरण – 

1. “मणि खोये भुजंग-सी जननी, फन-सा पटक रही थी शीश, अन्धी आज बनाकर मुझको, किया न्याय तुमने जगदीश?”

इस पद मे श्रवण कुमार की मृत्यु पर उनकी माता का करुण दशा का वर्णन किया गया है |
स्पष्टीकरण – 
स्थाई भाव – शोक 
विभाव (आलम्बन) – श्रवण कुमार 
आश्रय – पाठक 
उद्दीपन – महाराज दशरथ की उपस्थिति 
अनुभाव – सिर का पटकना 
संचारी भाव – विषाद, स्मृति, प्रलाप आदि |

2. अभी तो मुकुट बँधा था माथ, हुए कल ही हल्दी के हाथ |
खुले भी न थे लाज के बोल, खिले थे चुम्बन शून्य कपोल ||
हाय रूक गया यहाँ संसार, बना सिंदूर अनल अंगार |
वातहत लतिका यह सुकुमार, पडी है छिन्नाधार ||

3. प्रियपति वह मेरा प्राण प्यारा कहाँ है ?
दु:ख जलनिधि डूबी का सहारा कहाँ है ?
लख मुख जिसका मैं, आज लौं जी सकी हूँ ,
वह हृदय दुलारा नैन तारा कहाँ है ?

4. जथा पंख बिनु खग अति दीना | मनि बिनु फन करिबर कर हीना ||
अस मम जिवन बंधु बिन तोही | जौ जड दैव जियावह मोही ||

हास्य रस की परिभाषा –

किसी की विकृत आकृति, आकार , वेश भूषा चेष्टा आदि को देखकर हृदय में विनोद का भाव जागृत होने पर हास्य रस की उत्पत्ति होती है ‌| हास्य रस का स्थाई भाव हास है | अर्थात् जहाँ हास नामक स्थाई भाव, विभाव , अनुभाव और संचारी भावो से संयोग से रस रुप मे परिणत होता है , तो वहाँ हास्य रस की निष्पत्ति होती है |

हास्य रस के उदाहरण – ‌ 

1. बिंध्य के बासी उदासी तपोब्रतधारी महा बिनु नारि दुखारे |
गोतमतीय तरी, तुलसी, सो कथा सुनि भे मुनिबृन्द सुखारे ||
ह्रै हैं सिला सब चन्द्रमुखी परसे पद – मंजुल – कंज तिहारे |
कीन्ही भली रघुनायकजू करूना करि कानन को पगु धारे ||

इसमे विंध्याचल के तपस्वियों का वर्णन किया गया है |

स्पष्टीकरण- 
स्थाई भाव – हास 
आलम्बन – विंध्याचल के तपस्वी 
आश्रय – पाठक 
उद्दीपन – गौतम की स्त्री का उद्धार होना 
अनुभाव – मूनियों की कथा को सुनना |
संचारी भाव – उत्सुकता हर्ष , चंचलता आदि |

2. काहू न लखा सो चरित विसेखा | सो सरूप नर कन्या देखा ||
मरकट बदन भयंकर देही | देखत हृदय क्रोध भा तेही ||
जेहि दिसि बैठे नारद फूली | सो दिसि तेहि न विलोकी भूली ||
पुनि – पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं | देखि दशा हरगन मुसकाहीं ||

3. सीस पर गंगा हँसे, भुजनि भुजंगा हँसे,
‘हास ही को दंगा भयो नंगा के विवाह में |
कीन्ही भली रघुनायकजू करुना करि कानन को पगु धारे ||

4. जेहि दिदि बैठे नारद फूली | सो देहि तेहिं न विलोकी भूली ||
पुनि- पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहिं | देखि दसा हर गन मुसुकाहीं ||

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