कक्षा 12 सहर्ष स्वीकारा है

                       कक्षा - 12 पाठ - 5
                         सहर्ष स्वीकारा है 
प्रतिपादय- मुक्तिबोध की कविताएँ आमतौर पर लंबी होती हैं। इन्होंने जो भी छोटी कविताएँ लिखी हैं उनमें एक है ‘सहर्ष स्वीकारा है‘ जो ‘भूरी-भूरी खाक-धूल‘ काव्य-संग्रह से ली गई है। एक होता है-‘स्वीकारना’ और दूसरा होता है-‘सहर्ष स्वीकारना’ यानी खुशी-खुशी स्वीकार करना। यह कविता जीवन के सब सुख-दुख, संघर्ष-अवसाद, उठा-पटक को सम्यक भाव से अंगीकार करने की प्रेरणा देती है। कवि को जहाँ से यह प्रेरणा मिली, कविता प्रेरणा के उस उत्स तक भी हमको ले जाती है। उस विशिष्ट व्यक्ति या सत्ता के इसी ‘सहजता’ के चलते उसको स्वीकार किया था-कुछ इस तरह स्वीकार किया था कि आज तक सामने नहीं भी है तो भी आस-पास उसके होने का एहसास है-
मुस्काता चाँद ज्यों धरती पर रात-भर
मुझ पर त्यों तुम्हारा ही खिलता वह चेहरा है!

सार- कवि कहता है कि मेरे जीवन में जो कुछ भी है, वह मुझे सहर्ष स्वीकार है। मुझे जो कुछ भी मिला है, वह तुम्हारा दिया हुआ है तथा तुम्हें प्यारा है। मेरी गर्वीली गरीबी, विचार-वैभव, गंभीर अनुभव, दृढ़ता, भावनाएँ आदि सब पर तुम्हारा प्रभाव है। तुम्हारे साथ मेरा न जाने कौन-सा नाता है कि मैं जितनी भी भावनाएँ बाहर निकालने का प्रयास करता हूँ, वे भावनाएँ उतनी ही अधिक उमड़ती रहती हैं। तुम्हारा चेहरा मेरी ऊपरी धरती पर चाँद के समान अपनी कांति बिखेरता रहता है। कवि कहता है कि “मैं तुम्हारे प्रभाव से दूर जाना चाहता हूँ क्योंकि मैं भीतर से दुर्बल पड़ने लगा हूँ। तुम्हीं मुझे दंड दो ताकि मैं दक्षिण ध्रुव की अंधकारमयी अमावस्या की रात्रि के अँधेरों में लुप्त हो जाऊँ। मैं तुम्हारे उजालेपन को अधिक सहन नहीं कर पा रहा हूँ। तुम्हारी ममता की कोमलता भीतर से चुभने-सी लगी है। मेरी आत्मा कमजोर पड़ने लगी है।” वह स्वयं को पाताली अँधेरों की गुफाओं में लापता होने की बात कहता है, किंतु वहाँ भी उसे प्रियतम का सहारा है।

निम्नलिखित काव्यांशों को ध्यानपूर्वक पढ़कर  व्याख्या कीजिए और नीचे दिए प्रश्नों के उत्तर दीजिए-

जिंदगी में जो कुछ हैं, जो भी है
सहर्ष स्वीकारा है;
इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है
वह तुम्हें प्यारा हैं।
गरबीली गरीबी यह, ये गंभीर अनुभव सब
यह विचार-वैभव सब
दृढ़ता यह, भीतर की सरिता यह अभिनव सब
मौलिक है, मौलिक है
इसलिए कि पल-पल में
जो कुछ भी जाग्रत हैं अपलक हैं-
संवेदन तुम्हारा हैं!!

शब्दार्थ – सहर्ष- खुशी के साथ। स्वीकारा- मन से माना। गरबीली– स्वाभिमानी। गंभीर– गहरा। अनुभव– व्यावहारिक ज्ञान। विचार-वैभव– भरे-पूरे विचार। दृढ़ता– मजबूती। सरिता– नदी। भीतर की सरिता – भावनाओं की नदी। अभिनव– नया। मौलिक– वास्तविक। जाग्रत– जागा हुआ। अपलक–निरंतर। संवेदन– अनुभूति।

व्याख्या – कवि कहता है कि मेरी जिंदगी में जो कुछ है, जैसा भी है, उसे मैं खुशी से स्वीकार करता हूँ। इसलिए मेरा जो कुछ भी है, वह उसको (माँ या प्रिया) अच्छा लगता है। मेरी स्वाभिमानयुक्त गरीबी, जीवन के गंभीर अनुभव, विचारों का वैभव, व्यक्तित्व की दृढ़ता, मन में बहती भावनाओं की नदी-ये सब मौलिक हैं तथा नए हैं। इनकी मौलिकता का कारण यह है कि मेरे जीवन में हर क्षण जो कुछ घटता है, जो कुछ जाग्रत है, उपलब्धि है, वह सब कुछ तुम्हारी प्रेरणा से हुआ है।
विशेष-
(i) कवि अपनी हर उपलब्धि का श्रेय उसको (माँ या प्रिया) देता है।
(ii) संबोधन शैली है।
(iii) ‘मौलिक है’ की आवृत्ति प्रभावी बन पड़ी है।
(iv) ‘विचार-वैभव’ और ‘भीतर की सरिता’ में रूपक अलंकार तथा ‘पल-पल’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
(v) ‘सहर्ष स्वीकारा’, ‘गरबीली गरीबी’, ‘विचार-वैभव’ में अनुप्रास अलंकार की छटा है।
(vi) खड़ी बोली है।
(vi) काव्य की रचना मुक्तक छंद में है, जिसमें ‘गरबीली’, ‘गंभीर’ आदि विशेषणों का सुंदर प्रयोग है।
प्रश्न
(क) कवि जीवन की प्रत्येक परिस्थिति को सहर्ष स्वीकार क्यों करता हैं?
उत्तर- कवि को अपने जीवन की हर उपलब्धि व स्थिति इसलिए सहर्ष स्वीकार है क्योंकि यह सब कुछ उसकी माँ या प्रेयसी को प्रिय लगता है; क्योंकि उसे कवि की हर उपलब्धि पसंद है।
(ख) गरीबी के लिए प्रयुक्त विशेषण का औचित्य और सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- गरीबी के लिए प्रयुक्त विशेषण है-गरबीली। इसका औचित्य यह है कि कवि इस दशा में भी अपना स्वाभिमान बनाए हुए है। वह गरीबी को बोझ न मानकर उस स्थिति में भी प्रसन्नता महसूस कर रहा है।
(ग) कवि किन्हें नवीन और मौलिक मानता है तथा क्यों?
उत्तर- कवि स्वाभिमानयुक्त गरीबी, जीवन के गंभीर अनुभव, वैचारिक चिंतन, व्यक्तित्व की दृढ़ता और अंत:करण की भावनाओं को मौलिक मानता है। इसका कारण यह है कि ये सब उसके यथार्थ के प्रतिफल हैं और इन पर किसी का प्रभाव नहीं है।
(घ) ‘जो कुछ भी मेरा है वह तुम्हें प्यारा है’—इस कथन का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- ‘जो कुछ भी मेरा है वह तुम्हें प्यारा है’-कथन का आशय यह है कि कवि के पास जो कुछ उपलब्धियाँ हैं वह उसे (अभीष्ट महिला) को प्रिय हैं। इन उपलब्धियों में वह अपनी प्रियतता (माँ या प्रिया) का समर्थन महसूस करता है।

जाने क्या रिश्ता है, जाने क्या नाता है
जितना भी उँड़ेलता हूँ, भर-भर फिर आता है
दिल में क्या झरना है?
मीठे पानी का सोता है
भीतर वह, ऊपर तुम
मुसकता चाँद ज्यों धरती पर रात-भर
मुझ पर त्यों तुम्हारा ही खिलता वह चेहरा है! 

शब्दार्थ -रिश्ता– रक्त संबंध। नाता– संबंध। उँड़ेलना- बाहर निकालना। सोता–झरना।

व्याख्या- कवि कहता है कि तुम्हारे साथ न जाने कौन-सा संबंध है या न जाने कैसा नाता है कि मैं अपने भीतर समाये हुए तुम्हारे स्नेह रूपी जल को जितना बाहर निकालता हूँ, वह फिर-फिर चारों ओर से सिमटकर चला आता है और मेरे हृदय में भर जाता है। ऐसा लगता है मानो दिल में कोई झरना बह रहा है। वह स्नेह मीठे पानी के स्रोत के समान है जो मेरे अंतर्मन को तृप्त करता रहता है। इधर मन में प्रेम है और उधर तुम्हारा चाँद जैसा मुस्कराता हुआ चेहरा अपने अद्भुत सौंदर्य के प्रकाश से मुझे नहलाता रहता है। कवि का आंतरिक व बाहय जगत-दोनों उसी स्नेह से युक्त स्वरूप से संचालित होते हैं।
विशेष-
(i) कवि अपने प्रिय के स्नेह से पूर्णत: आच्छादित है।
(ii) ‘दिल में क्या झरना है’ में प्रश्न अलंकार है।
(iii) ‘भर-भर’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है,’जितना भी उँड़ेलता हूँ भर-भर फिर आता है’ में विरोधाभास अलंकार है, ‘मीठे पानी का सोता है’ में रूपक अलंकार है, प्रिय के मुख की चाँद के साथ समानता के कारण उपमा अलंकार है।
(iv) मुक्तक छंद है।
(v) खड़ी बोली युक्त भाषा में लाक्षणिकता है।
प्रश्न
(क) कवि अपने उस प्रिय संबंधी के साथ अपने संबंध कैसे बताता हैं?
उत्तर- कवि का अपने उस प्रिय के साथ गहरा संबंध है। उसके स्नेह से वह अंदर व बाहर से पूर्णत: आच्छादित है और उसका स्नेह उसे भिगोता रहता है।
(ख) कवि अपने दिल की तुलना किससे करता है तथा क्यों?
उत्तर- कवि अपने दिल की तुलना मीठे पानी के झरने से करता है। वह इसमें से जितना भी प्रेम बाहर उँड़ेलता है, उतना ही यह फिर भर जाता है।
(ग) कवि प्रिय को अपने जीवन में किस प्रकार अनुभव करता है?
उत्तर- कवि प्रिय को अपने जीवन में इस प्रकार अनुभव करता है जैसे धरती पर सदा चाँद मुस्कराता रहता है। कवि के जीवन पर सदा उसके प्रिय का मुस्कराता हुआ चेहरा जगमगाता रहता है।

सचमुच मुझे दंड दो कि भूलूँ मैं भूलूँ मैं
तुम्हें भूल जाने की
दक्षिण ध्रुवी अंधकार-अमावस्या
शरीर पर, चेहरे पर, अंतर में पा लूँ मैं
झेलूँ मैं, उसी में नहा लूँ मैं
इसलिए कि तुमसे ही परिवेष्टित आच्छादित
रहने का रमणीय यह उजेला अब
सहा नहीं जाता है।
नहीं सहा जाता है।                                                
ममता के बादल की मँडराती कोमलता-
भीतर पिरती है
कमज़ोर और अक्षम अब हो गई है आत्मा यह
छटपटाती छाती को भवित व्यता डराती है
बहलाती सहलाती आत्मीयता बरदाश्त नहीं होती है !           
शब्दार्थ- दंड– सजा। दक्षिण ध्रुवी अंधकार- दक्षिण ध्रुव पर छाने वाला गहरा अँधेरा। अमावस्या- चंद्रमाविहीन काली रात। अंतर- हृदय, अंत:करण। परिवेष्टित- चारों ओर से घिरा हुआ। आच्छादित- छाया हुआ, ढका हुआ। रमणीय- मनोरम। उजेला- प्रकाश। ममता- अपनापन, स्नेह। मँडराती- छाई हुई। पिराती- दर्द करना। अक्षम- अशक्त। भवितव्यता- भविष्य की आशंका। बहलाती- मन को प्रसन्न करती। सहलाती- दर्द को कम करती हुई। आत्मीयता- अपनापन।

व्याख्या- कवि अपने प्रिय स्वरूपा को भूलना चाहता है। वह चाहता है कि प्रिय उसे भूलने का दंड दे। वह इस दंड को भी सहर्ष स्वीकार करने के लिए तैयार है। प्रिय को भूलने का अंधकार कवि के लिए दक्षिणी ध्रुव पर होने वाली छह मास की रात्रि के समान होगा। वह उस अंधकार में लीन हो जाना चाहता है। वह उस अंधकार को अपने शरीर, हृदय पर झेलना चाहता है। इसका कारण यह है कि प्रिय के स्नेह के उजाले ने उसे घेर लिया है। यह उजाला अब उसके लिए असहनीय हो गया है। प्रिय की ममता या स्नेह रूपी बादल की कोमलता सदैव उसके भीतर मँडराती रहती है। यही कोमल ममता उसके हृदय को पीड़ा पहुँचाती है। इसके कारण उसकी आत्मा बहुत कमजोर और असमर्थ हो गई है। उसे भविष्य में होने वाली अनहोनी से डर लगने लगा है। उसे भीतर-ही-भीतर यह डर लगने लगा है कि कभी उसे अपनी प्रियतमा (माँ या प्रिया) प्रभाव से अलग होना पड़ा तो वह अपना अस्तित्व कैसे बचाए रख सकेगा। अब उसे उसका बहलाना, सहलाना और रह-रहकर अपनापन जताना सहन नहीं होता। वह आत्मनिर्भर बनना चाहता है।
विशेष-
(i) कवि अत्यधिक मोह से अलग होना चाहता है।
(ii) संबोधन शैली है।
(iii) खड़ी बोली में सशक्त अभिव्यक्ति है, जिसमें तत्सम शब्दों की बहुलता है।
(iv) अंधकार-अमावस्या निराशा के प्रतीक हैं।
(v) ‘ममता के बादल’, ‘दक्षिण ध्रुव अंधकार-अमावस्या’ में रूपक अलंकार,’छटपटाती छाती’ में अनुप्रास अलंकार, तथा ‘बहलाती-सहलाती’ में स्वर मैत्री अलंकार है।
(vi) कोमलता व आत्मीयता का मानवीकरण किया गया है।
(vii) ‘सहा नहीं जाता है’ की पुनरुक्ति से दर्द की गहराई का पता चलता है।
प्रश्न
(क) कवि क्या दंड चाहता हैं और क्यों ?
उत्तर- कवि अपनी प्रियतमा को भूलने का दंड चाहता है क्योंकि उसके अत्यधिक स्नेह के कारण उसकी आत्मा कमजोर हो गई है। उसका अपराधबोध से दबा मन यह प्रेम सहन नहीं कर पा रहा है। उसका मन आत्मग्लानि से भर उठता है।
(ख) कवि अपने जीवन में क्या चाहता है ?
उत्तर- कवि चाहता है कि उसके जीवन में अमावस्या और दक्षिणी ध्रुव के समान गहरा अंधकार छा जाए। वस्तुत: वह अपने प्रिय को भूलना चाहता है तथा उसके विस्मरण को शरीर, मुख और हृदय में बसाकर उसमें डूब जाना चाहता है।
(ग)  कवि को क्या सहन नहीं होता?
उत्तर- कवि की प्रियतमा के स्नेह का उजाला अत्यंत रमणीय है। कवि का व्यक्तित्व चारों ओर से उसके स्नेह से घिर गया है। इस अद्भुत, निश्छल और उज्ज्वल प्रेम के प्रकाश को उसका मन सहन नहीं कर पा रहा है।
(घ)  कवि की आत्मा कैसे हो गई है तथा क्यों ?
उत्तर- कवि की आत्मा अत्यंत कमजोर हो गई है क्योंकि वह अपनी प्रियतमा के अत्यधिक स्नेह के कारण पराश्रित हो गया है। यह स्नेह उसके मन को अंदर-ही-अंदर पीड़ित कर रहा है। दुख से छटपटाता किसी अनहोनी की कल्पना मात्र से ही उसका मन काँप उठता है।

सचमुच मुझे दंड दो कि हो जाऊँ
पाताली अँधेरे की गुहाओं में विवरों में
धुएँ के बादलों में
बिलकुल मैं लापता
लापता कि वहाँ भी तो तुम्हारा ही सहारा है !!
इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है
या मेरा जो होता-सा लगता हैं, होता-सा संभव हैं
सभी वह तुम्हारे ही कारण के कार्यों का घेरा है, कार्यों का वैभव है
अब तक तो जिंदगी में जो कुछ था, जो कुछ है
सहर्ष स्वीकार है
इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है
वह तुम्हें प्यारा हैं।  

शब्दार्थ–पाताली अँधेरे- धरती की गहराई में पाई जाने वाली धुंध। गुहा- गुफा। विवर- बिल। लापता- गायब। कारण- मूल प्रेरणा। घेरा- फैलाव। वैभव-समृद्ध।
व्याख्या- कवि कहता है कि मैं अपनी प्रियतमा के स्नेह से दूर होना चाहता हूँ। वह उसी से दंड की याचना करता है। वह ऐसा दंड चाहता है कि प्रियतमा के न होने से वह पाताल की अँधेरी गुफाओं व सुरंगों में खो जाए। ऐसी जगहों पर स्वयं का अस्तित्व भी अनुभव नहीं होता या फिर वह धुएँ के बादलों के समान गहन अंधकार में लापता हो जाए जो उसके न होने से बना हो। ऐसी जगहों पर भी उसे अपने प्रिय का ही सहारा है। उसके जीवन में जो कुछ भी है या जो कुछ उसे अपना-सा लगता है, वह सब उसके कारण है। उसकी सत्ता, स्थितियाँ भविष्य की उन्नति या अवनति की सभी संभावनाएँ प्रियतमा के कारण हैं। कवि का हर्ष-विषाद, उन्नति-अवनति सदा उससे ही संबंधित हैं। कवि ने हर सुख-दुख, सफलता-असफलता को प्रसन्नतापूर्वक इसलिए स्वीकार किया है क्योंकि प्रियतमा ने उन सबको अपना माना है। वे कवि के जीवन से पूरी तरह जुड़ी हुई हैं।
विशेष-
(i) कवि ने अपने व्यक्तित्व के निर्माण में प्रियतमा के योगदान को स्वीकार किया है।
(ii) ‘पाताली अँधेरे’ व ‘धुएँ के बादल’ आदि उपमान विस्मृति के लिए प्रयुक्त हुए हैं।
(iii) ‘दंड दो’ में अनुप्रास अलंकार है।
(iv) ‘लापता कि . सहारा है!’ में विरोधाभास अलंकार है।
(v) काव्यांश में खड़ी बोली का प्रयोग है।
(vi) मुक्तक छंद है।
प्रश्न
(क) कवि दड पाने की इच्छा क्यों रखता हैं?
उत्तर- कवि अपनी प्रियतमा के बिना अकेला रहना सीखना चाहता है। वह गुमनामी के अँधेरे में खोना चाहता है। प्रिया के अत्यधिक स्नेह ने कवि को भीतर से कमजोर बना दिया है। कवि स्वयं को अपनी प्रियतमा का दोषी मानता है, अत: वह दंड पाना चाहता है।
(ख) कवि दंड-स्वरूप कहाँ जाना चाहता हैं और क्यों?
उत्तर- कवि दंड स्वरूप गहन अंधकार वाली गुफाओं, सुरंगों या धुएँ के बादलों में छिप जाना चाहता है। इससे वह अपनी प्रियतमा से दूर रह पाएगा और अकेला रहना सीख सकेगा।
(ग) प्रियतमा के बारे में कवि क्या अनुभव करता है?
उत्तर- कवि को अपनी प्रियतमा के बारे में यह अनुभव है कि उसके जीवन की हर गतिविधि पर उसका प्रभाव है। उसके जीवन में जो कुछ घटित होने वाला है, उन सब पर उसकी प्रियतमा की अदृश्य छाया है।
(घ) कवि को जीवन की हर दशा सहर्ष क्यों स्वीकार है?
उत्तर- कवि ने अपने जीवन के सुख-दुख, सफलताएँ-असफलताएँ सभी कुछ खुशी-खुशी अपनाया है क्योंकि ये उसकी प्रियतमा को अच्छे लगते हैं और उन्हें अस्वीकार करना कवि के लिए असंभव है।



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