पाठ्यपुस्तक : क्षितिज भाग - 2 (सूरदास के पद)

पदों का सार

(१) पहले पद में गोपियाँ उद्धव से कहतीं हैं कि वे बहुत भाग्यशाली हैं जो कृष्ण के पास रहकर भी उनके प्रेम में नहीं बंधे। कमल का पत्ता जैसे जल में रहकर भी उससे अछूता रहता है, तेल की मटकी (गगरी) पानी में डुबोए जाने पर भी नहीं भीगती, उसी तरह वे भी कृष्ण के प्रेम से प्रभावित नहीं हुए। वे कहती हैं कि हम भोली ब्रज की गोपियाँ कृष्ण के अनुराग में ऐसे कृष्णमय हो गई हैं, जैसे गुड़ की मिठास से आकर्षित होकर चींटी गुड़ में चिपक जाती हैं उसी प्रकार हम भी कृष्ण प्रेम में उनसे अलग नहीं हो सकती।


(२) दूसरे पद में गोपियाँ कहती हैैं कि उनके मन की इच्छाएँँ तो मन मेें ही दबकर रह गई हैैं। उन्हेंं कृष्ण के लौटने की आशा थी और यही आशा उनका जीवन थी। परंतु अब उद्धव के सन्देेेश ने तो जैसे सब पर पानी ही फेर दिया है। विरह की अग्नि ने मर्यादाओं को तोड़ दिया है। सब्र का बाँध टूटा जा रहा है। कृष्ण के प्रति प्रेम जो कभी उन्होंने किसी पर प्रकट नहीं किया था, अब उलाहनों के साथ सब पर प्रकट हो रहा है।

(३) तीसरे पद में गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि कृष्ण ही हमारे लिए एक मात्र सहारा हैं। जैसे हारिल पक्षी अपनी लकड़ी के टुकड़े को कभी भी नहीं छोड़ता, उसी प्रकार हम भी कृष्ण को कभी भी अपने हृदय से छोड़ नही सकतीं। दिन रात, सोते जागते हम उनका ही नाम रटती हैं। तुम्हारी योग की बाते हमारे लिए कड़वी ककड़ी के जैसी है। ये बातें हमें अच्छी नही लगती। जिनका मन चंचल है, उन्हें यह योग की शिक्षा दीजिए।


(४) चौथे पद में गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि अब तुम्हारी बातों से हम समझ गई हैं कि मथुरा जाकर कृष्ण ने राजनीति भी सीख ली है। वे पहले से ही चतुर हैं। और अब अधिक चतुर बन गए हैं। तभी तो तुम्हें यहाँ हमारे पास योग का संदेश देकर भेजा है। पहले हम अपना मन तो उनसे वापस ले लें, जो उन्होनें मथुरा जाने से पहले चुरा लिया था। वे दूसरों से तो अनीति छोड़ने की बात करते हैं, किंतु हमसे वे अन्याय करते हैं। हमारे साथ ऐसा व्यवहार करना, हमें सताना और हमें विरह की आग में जलने देना क्या अन्याय नहीं है ? एक राजा का धर्म प्रजा का हित करना होता है, उसे सताना नहीं होता है। तो कृष्ण अपना राजधर्म किस प्रकार निभा रहे हैं ? वे तो हम सब गोपियों को सता रहे हैं। क्या यह उनका राजधर्म अथवा न्याय हैं ?

जार्ज पंचम की नाक

जार्ज पंचम की नाक कमलेश्वर

यह बात उस समय की है जब इंग्लैंण्ड की रानी ऐलिज़ाबेथ द्वितीय मय अपने पति के हिन्दुस्तान पधारने वाली थीं। अखबारों में उनके चर्चे हो रहे थे। रोज़ लन्दन के अखबारों में ख़बरें आ रही थीं कि शाही दौरे के लिए कैसी-कैसी तैयारियाँ हो रही हैं.... रानी ऐलिजाबेथ का दर्ज़ी परेशान था कि हिन्दुस्तान, पाकिस्तान और नेपाल के दौरे पर रानी क्या पहनेगी ? उनका सेक्रेटरी और जासूस भी उनके पहले ही इस महाद्वीप का तूफान दौरा करने वाला था.. आखिर कोई मजाक तो था नहीं, ज़माना चूंकी नया था, फौज-फाटे के साथ निकलने के दिन बीत चुके थे इसलिए फोटोग्राफरों की फौज तैयार हो रही थी....
इंग्लैंड के अखबारों की कतरनें हिन्दुस्तान अखबारों में दूसरे दिन चिपकी नज़र आती थी.... कि रानी ने एक ऐसा हल्के नीले रंग का सूट बनवाया है, जिसका रेशमी कपड़ा हिन्दुस्तान से मंगवाया गया है... कि करीब 400 पौंड खर्चा उस सूट पर आया है।
रानी ऐलिज़ाबेथ की जन्मपत्री भी छपी। प्रिन्स फिलिप के कारनामे छपे, और तो और उनके नौकरो, बावर्चियों खानसामों, अंगरक्षकों की पूरी-की-पूरी जीवनियां देखने में आई ! शाही महल में रहने और पलनेवाले कुत्तों तक की जीवनियाँ देखने में आईं ! शाही महल में रहने और पलने वाले कुत्तों तक की तस्वीरें अखबारों में छप गईं ....
बड़ी धूम थी। बड़ा शोर-शराबा था। शंख इंग्लैंड में बज रहा था, गूँज हिन्दुस्तान में आ रही थी।
इन अख़बारों से हिन्दुस्थान में सनसनी फैल रही थी.,....राजधानी में तहलका मचा हुआ था। जो रानी 5000 रुपये का रेशमी सूट पहनकर पालम के हवाई अड्डे पर उतरेगी उसके लिए कुछ तो होना ही चाहिए। कुछ क्या, बहुत कुछ होना चाहिए। जिसके बावर्ची पहले महायुद्ध में जान हथेली पर लेकर लड़ चुके हैं, उसकी शान-शौकत से क्या कहने और वही रानी दिल्ली आ रही है....
नई दिल्ली ने अपनी तरफ देखा और बेसाख़्ता मुंह से निकल गया –वह आएं हमारे घर, खुदा की रहमत... कभी हम उनकों कभी अपने घर को देखते हैं। और देखते-देखते नई दिल्ली का कायापलट होने लगा।
और करिश्मा तो यह था कि किसी ने किसी से नहीं कहा, किसी ने किसी को नहीं देखा- पर सड़कें जवान हो गई, बुढ़ापे की धूल साफ हो गई। इमारतों ने नाज़नीनों की तरह श्रृंगार किया....
लेकिन एक बड़ी मुश्किल पेश थी.... वह थी जार्ज पंचम की नाक ! नई दिल्ली में सब कुछ था, सब कुछ होता जा रहा था, सब कुछ हो जाने की उम्मीद थी, पर पंचम की नाक की बड़ी मुसीबत थी ! दिल्ली में सब कुछ था...सिर्फ नाक नहीं थी।
इस नाक की भी एक लम्बी दास्तान है। इस नाक के लिए बड़े तहलके मचे थे किसी वक्त ! आन्दोलन हुए थे। राजनीतिक पार्टियों ने प्रस्ताव भी दिये थे। गर्मागर्म बहसें भी हुई थीं। अखबारों के पन्ने रंग गए थे। बहस इस बात पर थी कि जार्ज पंचम की नाक रहने दी जाए या हटा दी जाए ! और जैसा कि हर राजनीतिक आन्दोलन में होता है, कुछ पक्ष में थे कुछ विपक्ष में और ज्यादातर लोग खामोश थे। ख़ामोश रहनेवालों की ताकत दोनों तरफ थी...
यह आन्दोलन चल रहा था। जार्ज पंचम की नाक के लिए हथियारबंद पहरेदार तैनात कर दिए गए थे.... क्या मजाल कि कोई उनकी नाक तक पहुँच जाए। हिन्दुस्तान में जगह-जगह ऐसी नाकें खड़ी थीं और जिन तक लोगों के हाथ पहुँच गये उन्हें शानों –शौकत के साथ उतारकर अजायबघरों में पहुँचा दिया गया। शाही लाटों की नाकों के लिए गुरिल्ला युद्ध होता रहा।.....
उसी ज़माने में यह हादसा हुआ-इंडिया गेट के सामने वाली जार्ज पंचम की लाट की नाक एकाएक गायब हो गई ! हथियारबंद पहरेदार अपनी जगह तैनात रहे। गश्त लगाते रहे...और लाट चली गई।
रानी आए और नाक न हो ! ...एकाएक यह परेशानी बढ़ी। बढ़ी सरगर्मी शुरू हुई। देश के ख़ैरख़्वाहों की एक मीटिंग बुलाई गई और मसला पेश किया गया कि क्या किया जाए ?’’ वहां सभी एकमत से इस बात पर सहमत थे कि अगर यह नाक नहीं है, तो हमारी भी नाक नहीं रह जाएंगी....
उच्च स्तर पर मशवरे हुए। दिमाग खरोंचे गए और यह तय किया गया कि हर हालत में इस नाक का होना बहुत जरूरी है। यह तय होते ही एक मूर्तिकार को हुक्म दिया गया कि फौरन दिल्ली में हाजिर हो। मूर्तिकार यों तो कलाकार था, पर ज़रा पैसे से लाचार था। आते ही उसने हुक्कामों के चेहरे देखे ... अजीब परेशानी थी उन चेहरों पर; कुछ लटके हुए थे, कुछ उदास थे और कुछ बदहवास थे। उनकी हालत देखकर लाचार कलाकार की आँखों में आँसू आ गए ....तभी एक आवाज सुनाई दी ‘‘मूर्तिकार ! जार्ज पंचम की नाक लगनी है।’’
मूर्तिकार ने सुना और जवाब दिया नाक लग जाएगी पर मुझे पता होना चाहिए कि यह लाट कब और कहां बनी थी ? इस लाट के लिए पत्थर कहाँ से लाया गया था ?’’
सब हुक्कामों ने एक -दूसरे की तरफ ताका...एक की नज़र ने दूसरे से कहा कि यह बताना ज़िम्मेदारी तुम्हारी है ! खैर मामला हल हुआ। एक क्लर्क को फोन किया गया और इस बात की पूरी छानबीन करने का काम सुपुर्द कर दिया गया !.... पुरातत्त्व विभाग की फाइलों के पेट चीरे गये, पर कुछ भी पता नहीं चला। क्लर्क ने लौटकर कमेटी के सामने कांपते हुए बयान किया- ‘‘सर ! मेरी खता माफ हो फाइलें सब कुछ हज़म कर चुकी हैं !’’
हुक्मरानों के चेहरों पर उदासी के बादल छा गए । एक खास कमेटी बनाई गई और उसके जिम्मे यह काम दे दिया गया कि जैसे भी हो यह काम होना है और इस नाक का दारोमदार आप पर है । आखिर मूर्तिकार को फिर बुलाया गया...उसने मसला हल कर दिया । वह बोला-"पत्थर की किस्म का ठीक पता नहीं चलता, तो परेशान मत होइए...मैँ हिन्दुस्तान के हर पहाड़ पर जाऊँगा और ऐसा ही पत्थर खोजकर लाऊँगा !" कमेटी के सदस्यों की जान-में-जान आई । सभापति ने चलते-चलते गर्व से कहा-"ऐसी क्या चीज, हैं जो अपने हिन्दुस्तान में मिलती नहीं । हर चीज़ इस देश के गर्भ में छिपी है...जरूरत खोज लाने की है...खोज करने के लिए मेहनत करनी होगी, इस मेहनत का फल हमें मिलेगा...आने वाला जमाना खुशहाल होगा ।"
वह छोटा-सा भाषण फौरन अखबारों में छप गया ।
मूर्तिकार हिन्दुस्तान के पहाड़ी प्रदेशों और पत्थरों की खानों के दौरे पर निकल पड़े। कुछ दिन बाद वह हताश लौटे, उनके चेहरे पर लानत बरस रही थी, उन्होंने सिर लटकाकर खबर दी…"हिन्दुस्तान का चप्पा-चप्पा खोज डाला, पर इस किस्म का पत्थर कहीं नहीं मिला। यह पत्थर विदेशी है!"
सभापति ने तैश में आकर कहा-"लानत है आपकी अक्ल पर ! विदेशों की सारी चीज हम अपना चुके हैं...दिल-दिमाग, तौर-तरीके और रहन-सहन...जब हिन्दुस्तान में बाल डांस तक मिल जाता है तो पत्थर क्यों नहीं मिल सकता !"
मूर्तिकार चुप खड़ा था । सहसा उसकी आँखों में चमक आ गई । उसने कहा-"एक बात मैं कहना चाहूंगा, लेकिन इस शर्त पर कि यह बात अखबारवालों तक न पहुंचे..."
सभापति की आँखों में भी चमक आई । चपरासी को हुक्म हुआ और कमरे के सब दरवाजे बन्द कर दिए गए । तब मूर्तिकार ने कहा-"देश में अपने नेतायों की मूर्तियाँ भी हैं...अगर इजाजत हो...अगर आप लोग ठीक समझें, तो मेरा मतलब है, तो...जिसकी नाक इस लाट पर ठीक बैठे. उसे उतार लाया जाए..."
सवने सबकी तरफ़ देखा । सबकी आँखों में एक क्षण की बदहवासी के बाद खुशी तैरने लगी । सभापति ने धीमे से कहा…"लेकिन बड़ी होशियारी से !"
और मूर्तिकार फिर देश-दौरे पर निकल पड़ा । जार्ज पंचम की खोई हुई नाक का नाप उसके पास था । दिल्ली से वह बम्बई पहुंचा...दादाभाई नौरोजी, गोखले, तिलक, शिवाजी, कावस जी जहाँगीर-सबकी नाकें उसने टटोलीं, नापीं और गुजरात की ओर भागा-गांधीजी, सरदार पटेल, विट्ठलभाई पटेल, महादेव देसाई की मूर्तियों को परखा और बंगाल की ओर चला-गुरूदेव रवीन्द्रनाथ, सुमाषचन्द्र बोस, राजा रामामोहन राय आदि को भी देखा, नाप-जोख की और बिहार की तरफ चला । बिहार होता हुआ उत्तर प्रदेश की ओर आया...चन्द्रशेखर आजाद, बिस्मिल, मोतीलाल नेहरु, मदमोहन मालवीय की लाटों के पास गया...घबराहट में मद्रास भी पहुंचा, सत्यमूर्ति को भी देखा, और मैसूर, केरल आदि सभी प्रदेशों का दौरा करता हुआ पंजाब पहुंचा…लाला लाजपतराय और भगतसिंह की लाटों से मी सामना हुआ । आखिर दिल्ली पहुंचा और अपनी मुश्किल बयान की-"पूरे हिन्दुस्तान की मूर्तियों की परिक्रमा कर आया । सबकी नाकों का नाप लिया…पर जार्ज पंचम…की नाक से सब बड़ी…निकलीं!.."
सुनकर सब हताश हो गए और झुंझलाने लगे । मूर्तिकार ने ढाढ़स बंधाते हुए आगे कहा, "सुना था कि बिहार सेक्रेटेरियट के सामने सन् ब्यालीस में शहीद होनेवाले तीन बच्चों की मूर्तियाँ स्थापित हैं...शायद बच्चों की नाक ही फिट बैठ जाए, यह सोचकर वहाँ भी पहुंचा पर...इन तीनों की नाकें भी इससे कहीं बड़ी बैठती हैं । अब बतायए, मैं क्या करूँ ?"
...राजधानी में सब तैयारियां थीं । जार्ज पंचम की लाट को मल-मलकर नहलाया गया था । रोगन लगाया गया था । सब कुछ था, सिर्फ नाक नहीं थी !
बात फिर बड़े हुक्मरानों तक पहुंची । बड़ी खलबली मची…अगर जार्ज पंचम के नाक न लग पाई, तो फिर रानी का स्वागत करने का मतलब ? यह तो अपनी नाक कटानेवाली बात हुई ।
लेकिन मूर्तिकार पैसे से लाचार था...यानी हार माननेवाला कलाकार नहीं था । एक हैरतअंगेज ख्याल उसके दिमाग में कौंधा और उसने पहली शर्त दुहराई । जिस कमरे में कमेटी बैठी हुई थी, उसके दरवाजे फिर बन्द हुए और मूर्तिकार ने अपनी नई योजना पेश की-"चूँकि नाक लगना एकदम जरुरी है, इसलिए मेरी राय है कि चालीस करोड़ में से कोई एक जिंदा नाक काटकर लगा दी जाए..."
बात के साथ ही सन्नाटा छा गया । कुछ मिनटों की खामोशी के बाद सभापति ने सबकी ओर देखा । सबको परेशान देखकर मूर्तिकार कुछ अचकचाया और धीरे-से बोला…"आप लोग क्यों घबराते हैं । यह काम मेरे ऊपर छोड़ दीजिए...नाक चुनना मेरा काम है...आपकी सिर्फ इजाजत चाहिए !"
कानाफूसी हुई और मूर्तिकार को इजाजत दे दी गई ।
अखबारों में सिर्फ इतना छपा कि नाक का मसला हल हो गया है और राजपथ पर इण्डिया गेट के पास वाली जार्ज पंचम की लाट के नाक लग रही है ।
नाक लगने से पहले फिर हथियारबंद पहरेदारों की तैनाती हुई । मूर्ति के आस-पास का तालाब सुखाकर साफ किया गया । उसकी खाद निकाली गई । और ताजा पानी डाला गया, ताकि जो जिन्दा नाक लगाई जाने वाली थी वह सूखने न पाए । इस बात की खबर औरों को नहीं थी । यह सब तैयारियां भीतर-भीतर चल रही थीं । रानी के आने का दिन नजदीक आता जा रहा था । मूर्तिकार खुद अपने बताए हल से परेशान था । जिन्दा नाक लाने के लिए उसने कमेटीवालों से कुछ और मदद मांगी । वह उसे दी गई । लेकिन इस हिदायत के साथ कि एक खास दिन हर हालत में नाक लग जाएगी।
और वह दिन आया ।
जार्ज पंचम के नाक लग गई ।
सब अखबारों ने खबरें छापीं कि जार्ज पंचम के जिंदा नाक लगाई गई है...यानी ऐसी नाक जो कतई पत्थर की नहीं लगती ।
लेकिन उस दिन के अखबारों में एक बात गौर करने की थी । उस दिन देश में कहीं भी किसी उद्घाटन की खबर नहीं थी । किसी ने कोई फीता नहीं काटा था । कोई सार्वजनिक सभा नहीं हुई थी । कहीं भी किसी का अभिनंदन नहीं हुआ था, कोई मानपत्र भेंट करने की नौबत नहीं आई थी । किसी हवाई अड्डे या स्टेशन पर स्वागत-समारोह नहीं हुआ था । किसी का ताजा चित्र नहीं छपा था । सब अखबार खाली थे ।पता नहीं ऐसा क्यों हुआ था ? नाक तो सिर्फ एक चाहिए थी और वह भी बुत के लिए ।

हिंदी पाठ्यपुस्क कृतिका -2

श्रम विभाजन और जाति-प्रथा


श्रम विभाजन और जाति-प्रथा

यह विडंबना की ही बात है, कि इस युग मे भी 'जातिवाद' के पोषकों की कमी नहीं हैं। इसके पोषक कई आधारों पर इसका समर्थन करते हैं । समर्थन का आधार  यह कहा जाता है, कि आधुनिक सभ्य समाज 'कार्य-कुशलता' के लिए  श्रम विभाजन को आवश्यक मानता है, और चूँकि जाति-प्रथा भी श्रम विभाजन का ही दूसरा रूप है इसलिए इसमें कोई बुराई नहीं है । इस तर्क के संबन्ध में पहली बात तो यही आपत्तिजनक है, कि जाति-प्रथा श्रम विभाजन के साथ -साथ श्रमिक - विभाजन का भी रूप लिए हुए है। श्रम विभाजन , निश्चय ही सभ्य समाज की आवश्यकता है, परन्तु किसी भी सभ्य समाज में श्रम विभाजन की व्यवस्था श्रमिको का विभिन्न वर्गों में अस्वाभाविक विभाजन नहीं करती । भारत की जाति-प्रथा की एक और विशेषता यह है कि यह श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन ही नहीं करती बल्कि विभाजित विभिन्न वर्गों को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच भी करार देती है, जो कि विश्व के किसी भी समाज में नहीं पाया जाता।
जाति-प्रथा को यदि श्रम विभाजन मान लिया जाए, तो यह  स्वाभाविक विभाजन नहीं है, क्योंकि यह मनुष्य की रुचि पर आधारित नहीं है। कुशल व्यक्ति या सक्षम-श्रमिक-समाज का  निर्माण करने के लिए यह आवश्यक है कि हम व्यक्तियों की क्षमता इस सीमा तक विकसित करें , जिससे वह अपना पेशा या कार्य का चुनाव स्वयं कर सके। इस सिद्धांत के विपरीत जाति-प्रथा का दूषित सिद्धांत यह है कि इससे मनुष्य के प्रशिक्षण अथवा उसकी निजी क्षमता का विचार किए  बिना, दूसरे ही दृष्टिकोण जैसे माता-पिता के सामाजिक स्तर के अनुरूप, पहले से ही अर्थात गर्भधारण के समय से ही  मनुष्य का पेशा निर्धारित कर दिया जाता है।
जाति-प्रथा पेशे क् दोषपूर्ण पूर्वनिर्धारण ही नहीं करती बल्कि मनुष्य को जीवन-भर के लिए एक पेशे में बाँध भी देती है। भले ही पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त होने के कारण वह भूखों मर जाए। आधुनिक युग में  यह स्थिति प्रायः आती है, क्योंकि उद्योग-धंधों की प्रक्रिया व तकनीक में निरंतर विकास और कभी- कभी अकस्मात परिवर्तन हो जाता है, जिसके कारण मनुष्य को अपना पेशा बदलने की आवश्यकता पड़ सकती है और यदि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मनुष्य को अपना पेशा बदलने की स्वतंत्रता न हो, तो इसके लिए भूखों मरने के अलावा क्या चारा रह जाता है? हिन्दू धर्म की जाति प्रथा किसी भी व्यक्ति को ऐसा पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती है, जो उसका पैतृक पेशा न हो , भले ही वह उसमें पारंगत हो। इस प्रकार पेशा परिवर्तन की अनुमति न देकर जाति-प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख व प्रत्यक्ष कारण बनी हुई है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि श्रम विभाजन की दृष्टि से भी जाति-प्रथा गंभीर दोषों से युक्त है। जाती-प्रथा का श्रम विभाजन मनुष्य की स्वेच्छा पर निर्भर नहीं रहता । मनुष्य की व्यक्तिगत भावना तथा व्यक्तिगत रुचि का इसमें कोई स्थान नहीं रहता । पूर्व लिख ही इसका आधार है। इस आधार पर हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि आज के उद्योगों में गरीबी  और उत्पीड़न इतनी बड़ी समस्या नही जितनी यह कि बहुत से लोग निर्धारित कार्य को अरुचि के साथ केवल विवशतावश करते हैं। ऐसी स्थिति स्वाभावतः मनुष्य को दुर्भावना से ग्रस्त रहकर टालू काम करने और कम काम करने के लिए प्रेरित करती है। ऐसी स्थिति में जहाँ काम करने वालों का न दिल लगता हो न दिमाग , कोई कुशलता कैसे प्राप्त की जा सकती है। अतः यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि आर्थिक पहलू से भी जाति-प्रथा हानिकारक प्रथा है। क्योंकि यह मनुष्य की स्वाभाविक प्रेरणारुचि व आत्म-शक्ति को दबा कर उन्हें अस्वाभाविक  नियमों में जकड़ कर निष्क्रिय बना देती है

हिंदी पाठ्यपुस्तक आरोह भाग -2

अमित सोनी


गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः । गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥










 भावार्थ :

गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है, गुरु हि शंकर है; गुरु हि साक्षात् परब्रह्म है; उन सद्गुरु को प्रणाम ।

अमित सोनी(सर) का जीवन परिचय :-
अमित सोनी नाम तो सुना होगा, एक ऐसी सख्शियत है जोकि बीकानेर के हर विद्यार्थी के दिलों में जगह बनाए हुए हैं। मैं प्रेम कुमार भी इनका शिष्य रह चुका हूँ। बीकानेर के और उसके आस पास के क्षेत्र के परीक्षार्थी उन पर पूर्ण विश्वास रखते है कि वो उन्हें उज्ज्वल भविष्य देंगे अमित सोनी सर ने जीवन में क्या-क्या महत्वपूर्ण कार्य किये है; एवं इनका अब तक का जीवन कैसा रहा यह सभी बाते आज हम इस लेख के माध्यम से आप तक पहुँचाने का प्रयास कर रहे हैं । (मुकेश भद्रवाल जी के सहयोग से)

पूरा नाम - अमित सोनी 
पेशा - शिक्षण 
जन्म तिथि - 5 अगस्त 1979
गृह नगर - बीकानेर
शैक्षणिक योग्यता - एम.कॉम, एम.ए(इतिहास)


पिता - श्री कन्हैया लाल सोनी
माता - श्रीमती पुष्पा देवी 
भाई - श्री राजेश सोनी 
बहन - श्रीमती सुनीता सोनी
पत्नी - श्रीमती संतोष सोनी
बेटे - तरुण , आयुष


शुरुआती करियर - 

1. रेलवे में 4 वर्ष तक सहायक स्टेशन मास्टर पद पर कार्यरत।
2. राज्य वाणिज्य कर विभाग में 2 वर्ष तक कनिष्ठ वाणिज्य कर अधिकारी के रूप में कार्य किया ।


वर्तमान - कई वर्षों से लगातार प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करवाते हैं इनके सानिध्य में जिसने भी शिक्षा प्राप्त की उसकी सफलता प्राप्ति के मार्ग उतने ही सरल होते गए  इनकी एक  विशेषता यह भी रही कि इन्हों अपने शुरुआती  शिक्षण से ही लगातार बहुत सारे परीक्षार्थियों को निःशुल्क पढ़ाया है जिनके पास फीस के रुपये भी नही थे । बहुत सारे विद्यार्थियों को सरकारी नोकरी दिलाने में इन्ही का हाथ है । ऐसा कोई विभाग नहीं जहाँ इनका विद्यार्थी पदस्थापित ना हो । थर्ड ग्रेड से लेकर आईएएस तक इनके स्टूडेंट उपस्थित है ।


ज्योतिबा फुले


नाम : महात्मा जोतिराव गोविंदराव फुले
जन्म
 : 11 अप्रैल 1827 पुणे
पिता
 : गोविंदराव फुले
माता
 : विमला बाई
विवाह
 : सावित्रीबाई फुले

        महात्मा ज्योतिबा फुले (ज्योतिराव गोविंदराव फुले) को 19वी. सदी का प्रमुख समाज सेवक माना जाता है. उन्होंने भारतीय समाज में फैली अनेक कुरूतियों को दूर करने के लिए सतत संघर्ष किया. अछुतोद्वार, नारी-शिक्षा, विधवा – विवाह और किसानो के हित के लिए ज्योतिबा ने उल्लेखनीय कार्य किया है.


आरंभिक जीवन :

        उनका जन्म 11 अप्रैल  1827  को सतारा महाराष्ट्र , में हुआ था. उनका परिवार बेहद गरीब था और जीवन-यापन के लिए बाग़-बगीचों में माली का काम करता था. ज्योतिबा जब मात्र  एक वर्ष के थे तभी उनकी माता का निधन हो गया था. ज्योतिबा का लालन – पालन सगुनाबाई नामक एक दाई ने किया. सगुनाबाई ने ही उन्हें माँ की ममता और दुलार दिया. 7 वर्ष की आयु में ज्योतिबा को गांव के स्कूल में पढ़ने भेजा गया.

        जातिगत भेद-भाव के कारण उन्हें विद्यालय छोड़ना पड़ा. स्कूल छोड़ने के बाद भी उनमे पढ़ने की ललक बनी रही. सगुनाबाई ने बालक ज्योतिबा को घर में ही पढ़ने में मदद की. घरेलु कार्यो के बाद जो समय बचता उसमे वह किताबें पढ़ते थे. ज्योतिबा  पास-पड़ोस के बुजुर्गो से विभिन्न विषयों में चर्चा करते थे. लोग उनकी सूक्ष्म और तर्क संगत बातों से बहुत प्रभावित होते थे.

        उन्‍होंने विधवाओं और महिलाओं के कल्याण के लिए काफी काम किया। उन्होंने इसके साथ ही किसानों की हालत सुधारने और उनके कल्याण के लिए भी काफी प्रयास किये। स्त्रियों की दशा सुधारने और उनकी शिक्षा के लिए ज्योतिबा ने 1848 में एक स्कूल खोला। यह इस काम के लिए देश में पहला विद्यालय था।

        लड़कियों को पढ़ाने के लिए अध्यापिका नहीं मिली तो उन्होंने कुछ दिन स्वयं यह काम करके अपनी पत्नी सावित्री को इस योग्य बना दिया। उच्च वर्ग के लोगों ने आरंभ से ही उनके काम में बाधा डालने की चेष्टा की, किंतु जब फुले आगे बढ़ते ही गए तो उनके पिता पर दबाब डालकर पति-पत्नी को घर से निकालवा दिया इससे कुछ समय के लिए उनका काम रुका अवश्य, पर शीघ्र ही उन्होंने एक के बाद एक बालिकाओं के तीन स्कूल खोल दिए।

        पेशवाई के अस्त के बाद अंग्रेजी हुकूमत की वजह से हुये बदलाव के इ.स. 1840 के बाद दृश्य स्वरूप आया. हिंदू समाज के सामाजिक रूढी, परंपरा के खिलाफ बहोत से सुधारक आवाज उठाने लगे. इन सुधारको ने स्त्री शिक्षण, विधवा विवाह, पुनर्विवाह, संमतीवय, बालविवाह आदी. सामाजिक विषयो पर लोगों को जगाने की कोशिश की. लेकीन उन्नीसवी सदिके ये सुधारक ‘हिंदू परंपरा’ के वर्ग में अपनी भूमिका रखते थे. और समाजसुधारणा की कोशिश करते थे.
      
        महात्मा जोतिराव फुले इन्होंने भारत के इस सामाजिक आंदोलन से महराष्ट्र में नई दिशा दी. उन्होंने वर्णसंस्था और जातीसंस्था ये शोषण की व्यवस्था है और जब तक इनका पूरी तरह से ख़त्म नहीं होता तब तक एक समाज की निर्मिती असंभव है ऐसी स्पष्ट भूमिका रखी. ऐसी भूमिका लेनेवाले वो पहले भारतीय थे. जातीव्यवस्था निर्मूलन के कल्पना और आंदोलन के उसी वजह से वो जनक साबीत हुये.

        महात्मा फुले इन्होंने अछूत स्त्रीयों और मेहनत करने वाले लोग इनके बाजु में जितनी कोशिश की जा सकती थी उतनी कोशिश जिंदगीभर फुले ने की है. उन्होंने सामाजिक परिवर्तन, ब्रम्ह्नोत्तर आंदोलन, बहुजन समाज को आत्मसन्मान देणे की, किसानो के अधिकार की ऐसी बहोतसी लढाई यों को प्रारंभ किया. सत्यशोधक समाज ये भारतीय सामाजिक क्रांती के लिये कोशिश करनेवाली अग्रणी संस्था बनी.

        महात्मा फुले ने लोकमान्य टिळक , आगरकर, न्या. रानडे, दयानंद सरस्वती इनके साथ देश की राजनीती और समाजकारण आगे ले जाने की कोशिश की. जब उन्हें लगा की इन लोगों की भूमिका अछूत को न्याय देने वाली नहीं है. तब उन्होंने उनपर टिका भी की. यही नियम ब्रिटिश सरकार और राष्ट्रीय सभा और कॉग्रेस के लिये भी लगाया हुवा दिखता है.

        महात्मा फुले ने अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले को पढ़ने के बाद उन्होंने पुणे में लडकियों के लिए भारत की पहली पाठ शाला खोली | 24 सितंबर 1873 को उन्होंने सत्य शोधक समाज की स्थापना की | वह इस संस्था के पहले कार्यकारी व्यवस्थापक तथा कोषपाल भी थे |इस संस्था का मुख्य  उद्देश्य समाज में शुद्रो पर हो रहे शोषण तथा दुर्व्यवहार पर अंकुश लगाना था |

        महात्मा फुले अंग्रेजी राज के बारे में एक सकारात्मक दृष्टिकोण रखते थे क्युकी अंग्रेजी राज की वजह से भारत में न्याय और सामाजिक समानता के नए बिज बोए जा रहे थे | महात्मा फुले ने अपने जीवन में हमेशा बड़ी ही प्रबलता तथा तीव्रता से विधवा विवाह की वकालत की | उन्होंने उच्च जाती की विधवाओ के लिए  एक घर भी बनवाया था |  दुसरो के सामने आदर्श रखने के लिए उन्होंने अपने खुद के घर के दरवाजे सभी जाती तथा वर्गों के लोगो के लिए हमेशा खुले रखे.

        ज्योतिबा मैट्रिक पास थे और उनके घर वाले चाहते थे कि वो अच्छे वेतन पर सरकारी कर्मचारी बन जाए लेकिन ज्योतिबा ने अपना सारा जीवन दलितों की सेवा में बिताने का निश्चय किया था | उन दिनों में स्त्रियों की स्तिथि बहुत खराब थी क्योंक घर के कामो तक ही उनका दायरा था | बचपन में शादी हो जाने के कारण स्त्रियों के पढने लिखने का तो सवाल ही पैदा नही होता था | दुर्भाग्य से अगर कोई बचपन में ही विधवा हो जाती थी तो उसके साथ बड़ा अन्याय होता था | तब उन्होंने सोचा कि यदि भावी पीढ़ी का निर्माण करने वाली माताए ही अंधकार में डूबी रहेगी तो देश का क्या होगा और उन्होंने माताओं के पढने पर जोर दिया था |

        उन्होंने विधवाओ और महिला कल्याण के लिए काफी काम किया था | उन्होंने किसानो की हालत सुधारने और उनके कल्याण के भी काफी प्रयास किये थे | स्त्रियों की दशा सुधारने और उनकी शिक्षा क्व लिये ज्योतिबा और उनकी पत्नी ने मिलकर 1848 में स्कूल खोला जो देश का पहला महिला विद्यालय था | उस दौर में लडकियों को पढ़ाने के लिए अध्यापिका नही मिली तो उन्होंने अपनी पत्नी सावित्रीबाई को पढाना शुरू कर दिया और उनको इतना योग्य बना दिया कि वो स्कूल में बच्चो को पढ़ा सके |

        ज्योतिबा यह जानते थे कि देश व समाज की वास्तविक उन्नति तब तक नहीं हो सकती, जब तक देश का बच्चा-बच्चा जाति-पांति के बन्धनों से मुक्त नहीं हो पाता, साथ ही देश की नारियां समाज के प्रत्येक क्षेत्र में समान अधिकार नहीं पा लेतीं । उन्होंने तत्कालीन समय में भारतीय नवयुवकों का आवाहन किया कि वे देश, समाज, संस्कृति को सामाजिक बुराइयों तथा अशिक्षा से मुक्त करें और एक स्वस्थ, सुन्दर सुदृढ़ समाज का निर्माण करें । मनुष्य के लिए समाज सेवा से बढ़कर कोई धर्म नहीं है । इससे अच्छी ईश्वर सेवा कोई नहीं । महाराष्ट्र में सामाजिक सुधार के पिता समझे जाने वाले महात्मा फूले ने आजीवन सामाजिक सुधार हेतु कार्य किया । वे पढ़ने-लिखने को कुलीन लोगों की बपौती नहीं मानते थे । मानव-मानव के बीच का भेद उन्हें असहनीय लगता था ।

        दलितों और निर्बल वर्ग को न्याय दिलाने के लिए ज्योतिबा ने 'सत्यशोधक समाज' स्थापित किया। उनकी समाजसेवा देखकर 1888 ई. में मुंबई की एक विशाल सभा में उन्हें 'महात्मा' की उपाधि दी। ज्योतिबा ने ब्राह्मण-पुरोहित के बिना ही विवाह-संस्कार आरंभ कराया और इसे मुंबई हाईकोर्ट से भी मान्यता मिली। वे बाल-विवाह विरोधी और विधवा-विवाह के समर्थक थे। वे लोकमान्य के प्रशंसकों में थे।


कार्य और सामाजिक सुधार :

• इनका सबसे पहला और महत्वपूर्ण कार्य महिलाओं की शिक्षा के लिये था; और इनकी पहली अनुयायी खुद इनकी पत्नी थी जो हमेशा अपने सपनों को बाँटती थी तथा पूरे जीवन भर उनका साथ दिया।
• 
अपनी कल्पनाओं और आकांक्षाओं के एक न्याय संगत और एक समान समाज बनाने के लिये 1848 में ज्योतिबा ने लड़कियों के लिये एक स्कूल खोला; ये देश का पहला लड़कियों के लिये विद्यालय था। उनकी पत्नी सावित्रीबाई वहाँ अध्यापान का कार्य करती थी। लेकिन लड़कियों को शिक्षित करने के प्रयास में, एक उच्च असोचनीय घटना हुई उस समय, ज्योतिबा को अपना घर छोड़ने के लिये मजबूर किया गया। हालाँकि इस तरह के दबाव और धमकियों के बावजूद भी वो अपने लक्ष्य से नहीं भटके और सामाजिक बुराईयों के खिलाफ लड़ते रहे और इसके खिलाफ लोगों में चेतना फैलाते रहे।
• 
1851 में इन्होंने बड़ा और बेहतर स्कूल शुरु किया जो बहुत प्रसिद्ध हुआ। वहाँ जाति, धर्म तथा पंथ के आधार पर कोई भेदभाव नहीं था और उसके दरवाजे सभी के लिये खुले थे।
• 
ज्योतिबा फुले बाल विवाह के खिलाफ थे साथ ही विधवा विवाह के समर्थक भी थे; वे ऐसी महिलाओं से बहुत सहानुभूति रखते थे जो शोषण का शिकार हुई हो या किसी कारणवश परेशान हो इसलिये उन्होंने ऐसी महिलाओं के लिये अपने घर के दरवाजे खुले रखे थे जहाँ उनकी देखभाल हो सके।

मृत्यु :

        ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले के कोई संतान नहीं थी इसलिए उन्होंने एक विधवा के बच्चे को गोद लिया था | यह बच्चा बड़ा होकर एक Doctor बना और इसने भी अपने माता पिता के समाज सेवा के कार्यों को आगे बढ़ाया | मानवता की भलाई के लिए किये गए ज्योतिबा के इन निश्वार्थ कार्यों के कारण May 1988 में उस समय के एक और महान समाज सुधारक “राव बहादुर विट्ठलराव कृष्णाजी वान्देकर” ने उन्हें “महात्मा” की उपाधी प्रदान की | July 1988 में उन्हें लकवे का Attack आ गया | जिसकी वजह से उनका शरीर कमजोर होता जा रहा था लेकिन उनका जोश और मन कभी कमजोर नही हुआ था |

        27 नवम्बर 1890 को उन्होंने अपने सभी हितैषियो को बुलाया और कहा कि “अब मेरे जाने का समय आ गया है, मैंने जीवन में जिन जिन कार्यो को हाथ में लिया है उसे पूरा किया है, मेरी पत्नी सावित्री ने हरदम परछाई की तरह मेरा साथ दिया है और मेरा पुत्र यशवंत अभी छोटा है और मै इन दोनों को आपके हवाले करता हूँ |” इतना कहते ही उनकी आँखों से आसू आ गये और उनकी पत्नी ने उन्हें सम्भाला | 28 नवम्बर 1890 को ज्योतिबा फुले ने देह त्याग दिया और एक महान समाजसेवी इस दुनिया से विदा हो गया |

नागार्जुन


नागार्जुन का जीवन परिचय -: नागार्जुन का जन्म 1911 ई. को बिहार के सतलखा में हुआ था। इनके पिता का नाम गोकुल मिश्र और माता का नाम उमा देवी था। बाद में नामकरण के बाद इनका नाम वैद्यनाथ मिश्र रखा गया। छह वर्ष की आयु में ही इनकी माता का देहांत हो गया। इनके पिता इन्हे कंधे पर बैठाकर अपने संबंधियों के यहाँ, एक गाँव से दूसरे गाँव आया-जाया करते थे। इस प्रकार बचपन में ही इन्हें पिता की लाचारी के कारण घूमने की आदत पड़ गयी और बड़े होकर यह घूमना उनके जीवन का स्वाभाविक अंग बन गया।

यह दंतुरित मुसकान कविता का सारांश- यह दंतुरित मुसकान कविता में कवि ने एक बच्चे की मुस्कान का बड़ा ही मनमोहक चित्रण किया है। कवि के अनुसार बच्चे की मुस्कान में इतनी शक्ति होती है कि वह किसी मुर्दे में भी जान डाल सकती है। कवि के अनुसार एक बच्चे की मुस्कान को देखकर, हम अपने सब दुःख भूल जाते हैं और हमारा अन्तःमन प्रसन्न हो जाता है। बच्चे को धूल में लिपटा घर के आँगन में खेलता देखकर कवि को ऐसा प्रतीत होता है, मानो किसी झोंपड़ी में कमल खिला हो। कवि ने यहाँ बाल अवस्था में एक बालक द्वारा की जाने वाली नटखट और प्यारी हरकतों का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है। जैसे जब कोई बालक किसी व्यक्ति को नहीं पहचानता है, तो उसे सीधी नज़रों से नहीं देखता, लेकिन एक बार पहचान लेने के बाद वो उसे टकटकी लगाकर देखता रहता है।

नागार्जुन यह दंतुरित मुस्कान भावार्थ-

तुम्हारी यह दंतुरित मुसकान       
मृतक में भी डाल देगी जान
धूलि-धूसर तुम्हारे ये गात….
छोड़कर तालाब मेरी झोंपड़ी में खिल रहे जलजात
परस पाकर तुम्हारा ही प्राण,
पिघलकर जल बन गया होगा कठिन पाषाण
छू गया तुमसे कि झरने लग पड़े शेफालिका के फूल
बाँस था कि बबूल?


भावार्थ :- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने एक दांत निकलते बच्चे की मधुर मुस्कान का मन मोह लेने वाला वर्णन किया है। कवि के अनुसार एक बच्चे की मुस्कान मृत आदमी को भी ज़िन्दा कर सकती है। अर्थात कोई उदास एवं निराश आदमी भी अपना गम भूलकर मुस्कुराने लगे। बच्चे घर के आँगन में खेलते वक्त खुद को गन्दा कर लेते हैं, धूल से सन जाते हैं, उनके गालों पर भी धूल लग जाती है।
कवि को यह दृश्य देखकर ऐसा लगता है, मानो किसी तालाब से चलकर कमल का फूल उनकी झोंपड़ी में खिला हुआ है। कवि को ऐसा प्रतीत हो रहा है कि अगर यह बालक किसी पत्थर को छू ले, तो वह भी पिघलकर जल बन जाए और बहने लगे। अगर वो किसी पेड़ को छू ले, फिर चाहे वो बांस हो या फिर बबूल, उससे शेफालिका के फूल ही झरेंगे।
अर्थात बच्चे के समक्ष कोई कोमल हृदय वाला इंसान हो, या फिर पत्थरदिल लोग। सभी अपने आप को बच्चे को सौंप देते हैं और वह जो करवाना चाहता है, वो करते हैं एवं उसके साथ खेलते हैं।

तुम मुझे पाए नहीं पहचान?
देखते ही रहोगे अनिमेष!
थक गए हो?
आँख लूँ मैं फेर?
क्या हुआ यदि हो सके परिचित न पहली बार?
यदि तुम्हारी माँ न माध्यम बनी होती आज
मैं न सकता देख
मैं न पाता जान
तुम्हारी यह दंतुरित मुसकान

भावार्थ :-  शिशु जब पहली बार कवि को देखता है, तो वह उसे पहचान नहीं पाता और कवि को एकटक बिना पलक झपकाए देखने लगता है। कुछ समय तक देखने के पश्चात् कवि कहता है – क्या तुम मुझे पहचान नहीं पाए हो? कितने देर तुम इस प्रकार बिना पलक झपकाए एकटक मुझे देखते रहोगे? कहीं तुम थक तो नहीं गए मुझे इस तरह देखते देखते? अगर तुम थक गए हो, तो मैं अपनी आँख फेर लेता हूँ, फिर तुम आराम कर सकते हो।
अगर हम इस मुलाकात में एक-दूसरे को पहचान नहीं पाए तो कोई बात नहीं। तुम्हारी माँ हमें मिला देगी और फिर मैं तुम्हें जी भर देख सकता हूँ। तुम्हारे मुख मंडल को निहार सकता हूँ। तुम्हारी इस दंतुरित मुस्कान का आनंद ले सकता हूँ।

धन्य तुम, माँ भी तुम्हारी धन्य!
चिर प्रवासी मैं इतर, मैं अन्य!
इस अतिथि से प्रिय तुम्हारा क्या रहा संपर्क
उँगलियाँ माँ की कराती रही हैं मधुपर्क
देखते तुम इधर कनखी मार
और होतीं जब कि आँखें चार
तब तुम्हारी दंतुरित मुसकान
मुझे लगती बड़ी ही छविमान!

भावार्थ :- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि अपने पुत्र के बारे में बताता है कि उसके नए-नए दांत निकलना शुरु हुए हैं। कवि बहुत दिनों बाद अपने घर वापस लौटा है, इसलिए उसका पुत्र उसे पहचान नहीं पा रहा। आगे कवि लिखते हैं कि बालक तो अपनी मनमोहक छवि के कारण धन्य है ही और उसके साथ उसकी माँ भी धन्य है, जिसने उसे जन्म दिया।
आगे कवि कहते हैं कि तुम्हारी माँ रोज तुम्हारे दर्शन का लाभ उठा रही है। एक तरफ मैं दूर रहने के कारण तुम्हारे दर्शन भी नहीं कर पाता और अब तुम्हें पराया भी लग रहा हूँ। एक तरह से यह ठीक भी है, क्योंकि मुझसे तुम्हारा संपर्क ही कितना है। यह तो तुम्हारी माँ की उँगलियाँ ही हैं, जो तुम्हें रोज मधुर-स्वादिष्ट भोजन कराती है। इस तरह तिरछी नज़रों से देखते-देखते जब हमारी आँख एक-दूसरे से मिलती है, मेरी आँखों में स्नेह देखकर तुम मुस्कुराने लगते हो।  यह मेरे मन को मोह लेता है।





फसल कविता का सारांश-



फसल कविता में कवि ने किसानों के परिश्रम एवं प्रकृति की महानता का गुणगान किया है। उनके अनुसार फसल पैदा करना किसी एक व्यक्ति के बस की बात नहीं। इसमें प्रकृति एवं मनुष्य दोनों का तालमेल लगता है। बीज को अंकुरित होने के लिए धूप, वायु, जल, मिट्टी एवं मनुष्य के कठोर परिश्रम की ज़रूरत पड़ती है। तब जाकर फसल पैदा होती है।


एक के नहीं,
दो के नहीं,
ढेर सारी नदियों के पानी का जादू :
एक के नहीं,
दो के नहीं,
लाख-लाख कोटि-कोटि हाथों के स्पर्श की गरिमा:
एक की नहीं,
दो की नहीं,
हजार-हजार खेतों की मिट्टी का गुण धर्म:

भावार्थ :- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने हमें यह बताने का प्रयास किया है कि फसल किसी एक व्यक्ति के परिश्रम या फिर केवल जल या मिट्टी से नहीं उगती है। इसके लिए बहुत अनुकूल वातावरण की जरूरत होती है।  इसी के बारे में आगे लिखते हुए कवि ने कहा है कि एक नहीं दो नहीं, लाखों-लाखों नदी के पानी के मिलने से यह फसल पैदा होती है।
किसी एक नदी में केवल एक ही प्रकार के गुण होते हैं, लेकिन जब कई तरह की नदियां आपस में मिलती हैं, तो उनमें सारे गुण आ जाते हैं, जो बीजों को अंकुरित होने में सहायता करते हैं और फसल खिल उठती है। ठीक इसी प्रकार, केवल एक या दो नहीं, बल्कि हज़ारों-लाखों लोगों की मेहनत और पसीने से यह धरती उपजाऊ बनती है और उसमे बोए गए बीज अंकुरित होते हैं। खेतों में केवल एक खेत की मिट्टी नहीं बल्कि कई खेतों की मिट्टी मिलती है, तब जाकर वह उपजाऊ बनते हैं।

फसल क्या है?
और तो कुछ नहीं है वह
नदियों के पानी का जादू है वह
हाथों के स्पर्श की महिमा है
भूरी-काली-संदली मिट्टी का गुण धर्म है
रूपांतर है सूरज की किरणों का
सिमटा हुआ संकोच है हवा की थिरकन का!

भावार्थ :- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि हमसे यह प्रश्न करता है कि यह फसल क्या है? अर्थात यह कहाँ से और कैसे पैदा होती है? इसके बाद कवि खुद इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि फसल और कुछ नहीं बल्कि नदियों के पानी का जादू है। किसानों के हाथों के स्पर्श की महिमा है। यह मिट्टियों का ऐसा गुण है, जो उसे सोने से भी ज्यादा मूल्यवान बना देती है। यह सूरज की किरणों एवं हवा का उपकार है। जिनके कारण यह फसल पैदा होती है।
अपनी इन पंक्तियों में कवि ने हमें यह बताने का प्रयास किया है कि फसल कैसे पैदा होती है? हम इसी अनाज के कारण ज़िन्दा हैं, तो हमें यह ज़रूर पता होना चाहिए कि आखिर इन फ़सलों को पैदा करने में नदी, आकाश, हवा, पानी, मिट्टी एवं किसान के परिश्रम की जरूरत पड़ती है। जिससे हमें उनके महत्व का ज्ञान हो।

सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'

उत्साह, अट नहीं रही है


सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जीवन परिचय- दुखों व संघर्षों से भरा जीवन जीने वाले विस्तृत सरोकारों के कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का जीवन काल सन 1899-1961 तक रहा। उनकी रचनओं में क्रांति, विद्रोह और प्रेम की उपस्थिति देखने को मिलती है। उनका जन्मस्थान कवियों की जन्मभूमि यानि बंगाल में हुआ। साहित्य के क्षेत्र में उनका नाम अनामिका, परिमल, गीतिका आदि कविताओं और निराला रचनावली के नाम से प्रकाशित उनके संपूर्ण साहित्य से हुआ, जिसके आठ खंड हैं। स्वामी परमहंस एवं विवेकानंद जैसे महान स्वतंत्रता सेनानियों से प्रेरणा लेने वाले और उनके बताए पथ पर चलने वाले निराला जी ने भी स्वंत्रता-संघर्ष में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविता का सार- उत्साह कविता निराला जी के सबसे पसंदीदा विषय बादल पर रचित है। यह कविता बादल के रूप में आये दो अलग तरह के बदलावों को दर्शाती है। इस कविता के माध्यम से निराला जी ने जीवन को एक अलग दिशा देने एवं अपना विश्वास खो चुके लोगों को प्रेरणा देने का प्रयास किया है। कवि बादलों के आने के ज़िक्र के जरिये, जीवन से निराश व हताश लोगों को यह उम्मीद देना चाहते हैं कि चाहे जो कुछ हो, लेकिन आपके जीवन में भी खुशहाली ज़रूर लौटेगी और आपके अच्छे दिन ज़रूर आयेंगे।

कविता में उन्होंने दूसरा अहम संदेश ये दिया है कि जिस तरह बादल बेजान पौधों में नई जान डाल देते हैं, वैसे ही मनुष्य को सारे दुखों को भूलकर अपने जीवन की नयी शुरुआत करनी चाहिए और ज़िंदगी में हमेशा आगे बढ़ते रहना चाहिए। मुख्य रूप से निराला जी ने यह कविता हमारे भीतर सोयी क्रांति को फिर से जगाने के लिए लिखी है।


बादल, गरजो!      
घेर घेर घोर गगन, धाराधर ओ !
ललित ललित, काले घुंघराले,
बाल कल्पना के-से पाले,
विधुत-छबि उर में, कवि, नवजीवन वाले !
वज्र छिपा, नूतन कविता
फिर भर दो –
बादल, गरजो !

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविता का भावार्थ :- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने बारिश होने से पहले आकाश में दिखने वाले काले बादलों के गरज़ने और आकाश में बिजली चमकने का अद्भुत वर्णन किया है। कवि कहते हैं कि बादल धरती के सभी प्राणियों को नया जीवन प्रदान करते हैं और यह हमारे अंदर के सोये हुए साहस को भी जगाते हैं।

आगे कवि बादल से कह रहे हैं कि “हे काले रंग के सुंदर-घुंघराले बादल! तुम पूरे आकाश में फैलकर उसे घेर लो और खूब गरजो। कवि ने यहाँ बादल का मानवीकरण करते हुए उसकी तुलना एक बच्चे से की है, जो गोल-मटोल होता है और जिसके सिर पर घुंघराले एवं काले बाल होते हैं, जो कवि को बहुत प्यारे और सुन्दर लगते हैं।

आगे कवि बादल की गर्जन में क्रान्ति का संदेश सुनाते हुए कहते हैं कि हे बादल! तुम अपनी चमकती बिजली के प्रकाश से हमारे अंदर पुरुषार्थ भर दो और इस तरह हमारे भीतर एक नये जीवन का संचार करो! बादल में वर्षा की सहायता से धरती पर नया जीवन उत्पन्न करने की शक्ति होती है, इसलिए, कवि बादल को एक कवि की संज्ञा देते हुए उसे एक नई कविता की रचना करने को कहते हैं।

विकल विकल, उन्मन थे उन्मन
विश्व के निदाघ के सकल जन,
आए अज्ञात दिशा से अनंत के घन !
तप्त धरा, जल से फिर
शीतल कर दो –
बादल, गरजो

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविता का भावार्थ :- कवि बादलों को क्रांति का प्रतीक मानते हुए यह कल्पना कर रहे हैं कि वह हमारे सोये हुए पुरुषार्थ को फिर से जगाकर, हमें एक नया जीवन प्रदान करेगा, हमें जीने की नई आशा देगा। कवि इन पंक्तियों में कहते हैं कि भीषण गर्मी के कारण दुनिया में सभी लोग तड़प रहे थे और तपती गर्मी से राहत पाने के लिए छाँव व ठंडक की तलाश कर रहे थे।
तभी किसी अज्ञात दिशा से घने काले बादल आकर पूरे आकाश को ढक लेते हैं, जिससे तपती धूप धरती तक नहीं पहुँच पाती। फिर बादल घनघोर वर्षा करके गर्मी से तड़पती धरती की प्यास बुझाकर, उसे शीतल एवं शांत कर देते हैं। धरती के शीतल हो जाने पर सारे लोग भीषण गर्मी के प्रकोप से बच जाते हैं और उनका मन उत्साह से भर जाता है।
इन पंक्तियों में कवि ये संदेश देना चाहते हैं कि जिस तरह धरती के सूख जाने के बाद भी बादलों के आने पर नये पौधे उगने लगते हैं। ठीक उसी तरह अगर आप जीवन की कठिनाइयों के आगे हार ना मानें और अपने पुरुषार्थ पर भरोसा रखकर कड़ी मेहनत करते रहें, तो आपके जीवन का बगीचा भी दोबारा फल-फूल उठेगा। इसलिए हमें अपने जीने की इच्छा को कभी मरने नहीं देना चाहिए और पूरे उत्साह से जीवन जीने की कोशिश करनी चाहिए।




अट नही रही है

अट नहीं रही है कविता में कवि ने प्रकृति की व्यापकता का वर्णन बड़े ही सुन्दर ढंग से किया है। होली के समय जो महीना होता है, उसे फाल्गुन कहा जाता है। उन्होंने इस कविता में, इस महीने में प्रकृति एवं मानवीय मन में होने वाले बदलाव को बड़े ही सुंदरता से दिखलाया है। फाल्गुन के समय पूरी प्रकृति खिल-सी जाती है। हवाएं मस्ती में बहने लगती हैं, फूल खिल उठते हैं और आसमान में उड़ते पक्षी सबका मन मोह लेते हैं। इस तरह प्रकृति को मस्ती में देखकर मनुष्य भी मस्ती में आ जाता है और फाल्गुन के गीत, होरी, फाग इत्यादि गाने लगता है।


अट नहीं रही है
आभा फागुन की तन
सट नहीं रही है।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविता का भावार्थ :- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने फाल्गुन के महीने की सुंदरता का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है। होली के वक्त जो मौसम होता है, उसे फाल्गुन कहते हैं। उस समय प्रकृति अपने चरम सौंदर्य पर होती है और मस्ती से इठलाती है। फाल्गुन के समय पेड़ हरियाली से भर जाते हैं और उन पर रंग-बिरंगे सुगन्धित फूल उग जाते हैं। इसी कारण जब हवा चलती है, तो फूलों की मंद-मंद ख़ुशबू उसमें घुल जाती है। इस हवा में सारे लोगों पर भी मस्ती छा जाती है, वो काबू में नहीं रह पाते और मस्ती में झूमने लगते हैं।

कहीं साँस लेते हो,
घर-घर भर देते हो,
उड़ने को नभ में तुम
पर-पर कर देते हो,
आँख हटाता हूँ तो
हट नहीं रही है।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविता का भावार्थ :-  इन पंक्तियों में कवि कहते हैं कि घर-घर में उगे हुए पेड़ों पर रंग-बिरंगे फूल खिले हुए हैं। उन फूलों की ख़ुशबू हवा में यूँ बह रही है, मानो फाल्गुन ख़ुद सांस ले रहा हो। इस तरह फाल्गुन का महीना पूरे वातावरण को आनंद से भर देता है। इसी आनंद में झूमते हुए पक्षी आकाश में अपने पंख फैला कर उड़ने लगते हैं। यह मनोरम दृश्य और मस्ती से भरी हवाएं हमारे अंदर भी हलचल पैदा कर देती हैं। यह दृश्य हमें इतना अच्छा लगता है कि हम अपनी आँख इससे हटा ही नहीं पाते। इस तरह फाल्गुन के मस्त महीने में हमें भी मस्ती से गाने एवं पर्व मनाने का मन होने लगता है।

पत्तों से लदी डाल
कहीं हरी, कहीं लाल,
कहीं पड़ी है उर में
मंद गंध पुष्प माल,
पाट-पाट शोभा श्री
पट नहीं रही है।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविता का भावार्थ :-  कवि के अनुसार फाल्गुन मास में प्रकृति इतनी सुन्दर नजर आती है कि उस पर से नजर हटाने को मन ही नहीं करता। चारों तरफ पेड़ों पर हरे एवं लाल पत्ते दिखाई दे रहे हैं और उनके बीच रंग-बिरंगे फूल ऐसे लग रहे हैं, मानो पेड़ों ने कोई सुंदर, रंगबिरंगी माला पहन रखी हो। इस सुगन्धित पुष्प माला की ख़ुशबू कवि को बहुत ही मादक लग रही है। कवि के अनुसार, फाल्गुन के महीने में यहाँ प्रकृति में होने वाले बदलावों से सभी प्राणी बेहद ख़ुश हो जाते हैं। कविता में कवि स्वयं भी बहुत ही खुश लग रहे हैं।

गौतम बुद्ध

अपने दीपक स्वयं बनो


"किसी बात को सिर्फ इसलिए मत मानो की ऐसा सदियों से होता आया है,परम्परा है, या सुनने में आई है। इसलिए मत मानो की किसी धर्मगुरु, आचार्य, साधु-संत, ज्योतिषी की बात को आँख मूँद कर मत मान लेना । किसी बात को सिर्फ बात को सिर्फ इसलिए भी मत मान लेना कि वह तुमसे कोई बड़ा या आदरणीय व्यक्ति कह रहा है बल्कि हर बात को पहले बुद्धि, तर्क, विवेक,चिन्तन व अनुभूति की कसौटी पर तोलना, कसना, परखना और यदि वह बात स्वयं के लिए, समाज व सम्पूर्ण मानव जगत के कल्याण के हित लगे, तो ही मानना।"

भारत का संविधान

           हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को :
सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय,
विचार, अभिव्यक्ति विश्वास,धर्म
और उपासना की स्वतंत्रता,
प्रतिष्ठा और अवसर की समता
प्राप्त कराने के लिए,
तथा उन सब में
             व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता
             और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता
बढ़ाने के लिए
दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर, 1949 ई. ( मति मार्गशीर्ष शुक्ला, सप्तमी, संवत दो हज़ार छह विक्रमी) को एदत् इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं !

राम-लक्ष्मण-परशुराम-संवाद

राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद का भावार्थ- राम लक्ष्मण परशुराम संवाद रामचरित मानस से लिया गया है। जो कि सीता जी के स्वयंवर के समय का है। श्री राम, शिव जी का धनुष उठाकर उसे तोड़ देते हैं, तो सारे संसार में इस बात की चर्चा आग की तरह फैल जाती है। जब यह बात परशुराम जी के कानों तक जाती है और उन्हें पता चलता है कि उनके गुरुदेव शिव जी का धनुष किसी ने तोड़ दिया है, वो अपने आपे से बाहर हो जाते हैं। वो धनुष तोडने वाले व्यक्ति का वध करने के लिए सीता जी के स्वयंवर वाली सभा में आ जाते हैं। उसके बाद राम–लक्ष्मण– परशुराम जी के बीच जो बात होती है, उसका वर्णन यहाँ दिया हुआ है।

नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा॥
आयेसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही॥
सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरिकरनी करि करिअ लराई॥

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद भावार्थ :- इन पंक्तियों में श्री राम परशुराम जी से कह रहे हैं कि – हे नाथ! शिवजी के धनुष को तोड़ने की शक्ति तो केवल आपके दास में ही हो सकती है। इसलिए वह आपका कोई दास ही होगा, जिसने इस धनुष को तोडा है। क्या आज्ञा है? मुझे आदेश दें। यह सुनकर परशुराम जी और क्रोधित हो जाते हैं और कहते हैं कि सेवक वही हो सकता है, जो सेवकों जैसा काम करे। यह धनुष तोड़कर उसने शत्रुता का काम किया है और इसका परिणाम युद्ध ही है। उसने इस धनुष को तोड़कर मुझे युद्ध के लिए ललकारा है, इसलिए वो मेरे सामने आए।


सुनहु राम जेहि सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा॥
सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा॥
सुनि मुनिबचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अवमाने॥
बहु धनुही तोरी लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस किन्हि गोसाईँ॥
येही धनु पर ममता केहि हेतू। सुनी रिसाइ कह भृगुकुलकेतू॥

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद भावार्थ :- परशुराम जी श्री राम से कहते हैं, जिसने भी शिवजी के धनुष को तोडा है,वह सहस्त्रबाहु के समान ही मेरा शत्रु है ।वह इस स्वयंवर को छोड़कर अलग खड़ा हो जाए, नहीं तो इस दरबार में उपस्थित सारे राजाओं को अपनी जान से हाथ धोना पड़ सकता है। परशुराम के क्रोध से भरे स्वर को सुनकर लक्ष्मण उनका मज़ाक उड़ाते हुए कहते हैं कि हे मुनिवर! हम बचपन में खेल-खेल में ऐसे कई धनुष तोड़ चुके हैं, तब तो आप क्रोधित नहीं हुए। परन्तु यह धनुष आपको इतना प्रिय क्यों है? जो इसके टूट जाने पर आप इतना क्रोधित हो उठे हैं और जिसने यह धनुष तोडा है, उससे युद्ध करने के लिए तैयार हो गए हैं।

रे नृपबालक कालबस बोलत तोहि न सँभार ।
धनुही सम त्रिपुरारिधनु बिदित सकल संसार॥

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद भावार्थ :- परशुराम जी कहते हैं, हे राजपूत्र (राजा के बेटे) तुम काल के वश में हो, अर्थात तुम में अहंकार समाया हुआ है और इसी कारणवश तुम्हें यह नहीं पता चल पा रहा है कि तुम क्या बोल रहे हो। क्या तुम्हें बचपन में तोड़े गए धनुष एवं शिवजी के इस धनुष में कोई अंतर नहीं दिख रहा? जो तुम इनकी तुलना आपस में कर रहे हो?

प्रश्न 1. परशुराम के क्रोध करने पर लक्ष्मण ने धनुष के टूट जाने के लिए कौन-कौन से तर्क दिए?

प्रश्न 2. 'बहु धनुही तोरी लरिकाई' - यह किसने कहा और क्यों ?

लखन कहा हसि हमरे जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना॥
का छति लाभु जून धनु तोरें। देखा राम नयन के भोरें।।
छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू॥

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद भावार्थ :-  परशुराम की बात सुनने के उपरांत लक्ष्मण मुस्कुराते हुए व्यंगपूर्वक उनसे कहते हैं कि, हमें तो सारे धनुष एक जैसे ही दिखाई देते हैं, किसी में कोई फर्क नजर नहीं आता। फिर इस पुराने धनुष के टूट जाने पर ऐसी क्या आफ़त आ गई है? जो आप इतना क्रोधित हो उठे हैं। आगे लक्ष्मण कहते हैं, इस धनुष के टूटने में श्री राम का कोई दोष नहीं है, क्योंकि इस धनुष को श्री राम ने केवल छुआ मात्र था और यह टूट गया। आप व्यर्थ ही क्रोधित हो रहे हैं।


बोले चितै परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा॥
बालकु बोलि बधौं नहि तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही।।
बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्वबिदित क्षत्रियकुल द्रोही॥
भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही॥
सहसबाहुभुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा॥

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद भावार्थ :- परशुराम, लक्ष्मण जी की इन व्यंग से भरी बातों को सुनकर और भी ज्यादा क्रोधित हो जाते हैं। वे अपने फ़रसे की तरफ देखते हुए बोलते हैं, हे मूर्ख लक्ष्मण! लगता है, तुझे मेरे व्यक्तित्व के बारे में नहीं पता। मैं अभी तक बालक समझकर तुझे क्षमा कर रहा था। परन्तु तू मुझे एक साधारण मुनी समझ बैठा है।
मैं बचपन से ही ब्रह्मचारी हूँ। सारा संसार मेरे क्रोध को अच्छी तरह से पहचानता है। मैं क्षत्रियों का सबसे बड़ा शत्रु हूँ। अपने बाजुओं के बल पर मैंने कई बार इस पृथ्वी से क्षत्रियों का सर्वनाश किया है और इस पृथ्वी को जीतकर ब्राह्मणों को दान में दिया है। इसलिए हे राजकुमार लक्ष्मण! मेरे फरसे को तुम ध्यान से देख लो, यही वह फरसा है, जिससे मैंने सहस्त्रबाहु का संहार किया था।

मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।
गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर॥

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद भावार्थ :- हे राजकुमार बालक! तुम मुझसे भिड़कर अपने माता-पिता को चिंता में मत डालो, अर्थात अपनी मृत्यु को न्यौता मत दो। मेरे हाथ में वही फरसा है, जिसकी गर्जना सुनकर गर्भ में पल रहे बच्चे का भी नाश हो जाता है।

प्रश्न 1. लक्ष्मण ने धनुष खंडित होने के क्या-क्या कारण बताए ?

प्रश्न 2. परशुराम ने अपने फरसे की क्या विशेषताएँ बताई हैं ?


बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु माहभट मानी।।
पुनि-पुनि मोहि देखाऊ कुठारु। चहत उड़ावन फूँकि पहारू।।
इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाही। जे तर्जनी देखि मरि जहिं।।

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद भावार्थ :- परशुराम की डींगें सुनकर लक्ष्मण मुस्कुराते हुए बड़े प्रेमभरे स्वर में बोलते हैं कि परशुराम तो जाने-माने योद्धा निकले। आप तो अपना फरसा दिखा कर ही मुझे डराना चाहते हैं, मानो फूंक से ही पहाड़ उड़ाना चाहते हों। परन्तु मैं कोई छुइमुई का वृक्ष नहीं, जिसे आप अपनी तर्जनी ऊँगली दिखा कर मुरझा सकते हैं। मैं आपकी इन बड़ी-बड़ी डींगों से डरने वालों में से नहीं हूँ।

प्रश्न 1. लक्ष्मण ने परशुराम पर क्या व्यंग्य किया ?
प्रश्न 2. 'चहत उड़ावन फूँकी पहारू'- से लक्ष्मण का क्या अभिप्राय है ?

देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना॥
भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहौं रिस रोकी॥
सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरे कुल इन्ह पर न सुराई॥
बधें पापु अपकीरति हारें। मारतहू पा परिअ तुम्हारें।।
कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा। ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा॥

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद भावार्थ :-  इन पंक्तियों में लक्ष्मण कहते हैं, मैंने आपके हाथ में कुल्हाड़ा और कंधे पर टँगे तीर-धनुष देखकर, आपको एक वीर योद्धा समझा और अभिमानपूर्वक कुछ कह दिया। आपको ऋषि भृगु का पुत्र मानकर एवं काँधे पर जनेऊ देखकर आपके द्वारा किये गए सारे अपमान सहन कर लिए और क्रोध की अग्नि को जलने नहीं दिया।
वैसे भी हमारे कुल की यह परंपरा है कि हम देवता, ब्राह्मण, भक्त एवं गाय के ऊपर अपनी वीरता नहीं आजमाते। आप तो ब्राह्मण हैं और मैं आपका वध करूँ, तो पाप मुझे ही लगेगा। आप अगर मेरा वध भी कर देते हैं, तो मुझे आपके चरणों में झुकना पड़ेगा। यही हमारे कुल की मर्यादा है। फिर आगे लक्ष्मण कहते हैं कि आपके वचन ही किसी वज्र की भाँति कठोर हैं, तो फिर आप को इस कुल्हाड़े और धनुष की क्या ज़रूरत है

जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर।
सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गंभीर।

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद भावार्थ :- लक्ष्मण जी आगे कहते है कि अगर इन्हें देखकर मैंने कुछ अनुचित कह दिया है तो है परम् धैर्यवान महामुनि ! मुझे क्षमा कर दें । ऐसा सुनकर भृगुवंश के मणि स्वरूप परशुरामजी ने क्रोध के साथ गंभीर वाणी में कहा ।


कौसिक सुनहु मंद येहु बालकु। कुटिलु कालबस निज कुल घालकु॥
भानुबंस राकेस कलंकू। निपट निरंकुसु अबुधु असंकू॥
कालकवलु होइहि छन माहीं। कहौं पुकारि खोरि मोहि नाहीं॥
तुम्ह हटकहु जौ चाहु उबारा। कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा॥

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद भावार्थ :- हे विश्वामित्र! यह बालक बहुत ही मंद बुद्धि वाला और मुर्ख एवं उदंड है, जिसके कारण यह अपने ही कुल का नाश कर बैठेगा। इसे सत्य का ज्ञान नहीं है। यह चंद्रमा में लगे दाग की तरह अपने कुल के लिए एक कलंक है। इसको काल ने घेर रखा है। मैं चाहूँ तो छण-भर में इसका अंत कर सकता हूँ। फिर मुझे तुम दोष मत देना। अगर तुम इस बालक की सलामती चाहते हो, तो मेरे प्रताप, बल और क्रोध के बारे में बतलाकर इसे समझाओ एवं शांत करो।


लखन कहेउ मुनि सुजसु तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा॥
अपने मुहु तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी॥
नहि संतोषु त पुनि कछु कहहू। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू॥
बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा॥

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद भावार्थ :- प्रस्तुत पंक्तियों में परशुराम की बात सुनकर लक्ष्मण कहते हैं, हे मुनिवर! आप अपनी वीरता का बखान करते हुए थक नहीं रहे हो। आपने कई प्रकार से अपनी वीरता के बारे में बतलाया है। आपके बल और साहस के बारे में आपसे अच्छा भला कौन बता सकता है। अगर इतने से भी आपका मन न भरा हो, तो अपना क्रोध सहन कर खुद को पीड़ा न दें। अपितु फिर से अपनी वीरता का बखान कर लें। आप एक वीर पुरुष हैं, जिनमें धैर्य और क्षमा व्याप्त है। आपके मुँह से अपशब्द शोभा नहीं देते।

सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।
विधमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु॥

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद भावार्थ :- शूरवीर युद्ध में अपनी शूरवीरता का प्रदर्शन करते हैं। वे अपने मुँह मिया-मिट्ठू नहीं बनते अर्थात स्वयं के मुख से स्वयं की प्रशंसा नहीं करते और रणभूमि में अपने शत्रु को सामने पाकर कायरों की तरह बातों में व्यर्थ समय नहीं बिताते, अपितु युद्ध करके अपनी वीरता का परिचय देते हैं।

प्रश्न 1. परशुराम के प्रति लक्ष्मण के वचन किस भाव के व्यंजक है ?

प्रश्न 2. युद्ध मे शत्रु को सामने देखकर वीर तथा कायर क्या करते हैं ?

तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागि बोलावा॥
सुनत लखन के बचन कठोरा। परसु सुधारि धरेउ कर घोरा॥
अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू। कटुबादी बालकु बध जोगू॥
बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा। अब येहु मरनिहार भा साँचा॥

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद भावार्थ :-  प्रस्तुत पंक्तियों में लक्ष्मण जी परशुराम से कहते हैं कि हे मुनिवर! ऐसा लग रहा है कि आप मृत्यु को मेरे लिए हाँक लगा-लगाकर बुला रहे हो। लक्ष्मण के इस व्यंग को सुनकर परशुराम बहुत ही क्रोधित हो जाते हैं और अपने फरसे को हाथ में ले कर बोलते हैं कि इस बालक के वध के लिए संसार मुझे दोष न दे, क्योंकि इसने खुद अपने कटु वचनों के सहारे अपनी मौत को बुलाया है। मैंने इसे बालक समझकर कई बार क्षमा किया, परन्तु अब यह मरने-योग्य हो गया है।


कौसिक कहा छमिअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिं न साधू॥
खर कुठार मैं अकरुन कोही। आगे अपराधी गुरुद्रोही॥
उतर देत छोड़ौं बिनु मारे। केवल कौसिक सील तुम्हारे॥
न त येहि काटि कुठार कठोरे। गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरे॥

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद भावार्थ :- प्रस्तुत पंक्तियों में विश्वामित्र जी परशुराम से कहते हैं कि परशुराम जी! आप तो साधू हैं। साधु कभी बालकों के अपराध पर ज्यादा ध्यान नहीं देते और उन्हें क्षमा कर देते हैं। इसलिए लक्ष्मण को भी क्षमा कर दें। यह सुनकर परशुराम जी विश्वामित्र से कहते हैं कि तुम जानते हो कि मैं कितना कठोर एवं निर्दयी हूँ।
मुझमें क्रोध कितना भरा हुआ है। मेरे सामने यह मेरे गुरु का अपमान किये जा रहा है और मेरे हाथों में फरसा होने के बावजूद भी मैंने अभी तक इसका वध नहीं किया है। अगर यह जीवित खड़ा है, तो सिर्फ तुम्हारे प्रेम और सदभाव के लिए। नहीं तो अभी तक मैं अपने फरसे से बिना किसी परिश्रम के इसे काटकर इसका वध कर देता और अपनी गुरु-दक्षिणा चुका देता।

प्रश्न 1. विश्वामित्र ने परशुराम को साधु की क्या विशेषता बतलाई है ?

प्रश्न 2. परशुराम ने लक्ष्मण को क्षमा कर देने का क्या कारण बताया ?

गाधिसूनु कह हृदय हसि मुनिहि हरियरे सूझ।
अयमय खाँड़ न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ॥

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद भावार्थ :- यह सुनकर विश्वामित्र जी मन ही मन हँसने लगते हैं और सोचते हैं कि परशुराम जी ने सभी क्षत्रियों को हराया है, तो वे राम-लक्ष्मण को भी साधारण क्षत्रिय मानकर उन्हें आसानी से हराने के बारे में सोच रहे हैं। परन्तु उन्हें इस बात का ज्ञान नहीं है कि उनके समक्ष कोई गन्ने के रस से बना गुड़ नहीं है, अपितु लोहे के फौलाद से बनी तेज तलवार है। अर्थात राम एवं लक्षमण को वे साधारण क्षत्रिय समझने की भूल कर रहे हैं, जबकि दोनों ही शूरवीर एवं पराक्रमी है।

कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहि जान बिदित संसारा॥
माता पितहि उरिन भये नीकें। गुररिनु रहा सोचु बड़ जी कें॥
सो जनु हमरेहि माथें काढ़ा। दिन चलि गये ब्याज बड़ बाढ़ा॥
अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली॥

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद भावार्थ :- लक्ष्मण परशुराम जी से कहते हैं कि हे मुनिवर! आपके शील स्वभाव से पूरा संसार भली-भाँति परिचित है। आप अपने माता-पिता के कर्ज से तो पूरी तरह मुक्त हो चुके हैं, परन्तु अभी तक आपके ऊपर गुरु-ऋण बाकी बचा हुआ है। जिसे आप जल्द से जल्द उतारना चाहते हैं और इसी कारण आप मेरा वध करने पर तुले हुए हैं।
यह ठीक भी है, क्योंकि बहुत दिन हो चुके हैं, अब तक तो आपके ऊपर गुरु-ऋण का बहुत ब्याज चढ़ चुका होगा। तो फिर देर करने की ज़रूरत नहीं है, किसी हिसाब-किताब करने वाले को बुला लीजिए। मैं देर किए बिना अपनी थैली खोल कर सारी धन राशि चुका दूँगा।

सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा॥
भृगुबर परसु देखाबहु मोही। बिप्र बिचारि बचौं नृपद्रोही॥
मिले न कबहूँ सुभट रन गाढ़े। द्विजदेवता घरहि के बाढ़े॥
अनुचित कहि सबु लोगु पुकारे। रघुपति सयनहि लखनु नेवारे॥

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद भावार्थ :- लक्ष्मण के ये कठोर वचन सुनकर परशुराम अपने क्रोध की आग में जलने लगते हैं और अपने फरसे को पकड़ कर आक्रमण की मुद्रा में आते हैं, जिसे देखकर दरबार में उपस्थित सारे लोग हाय-हाय करने लगते हैं। यह देख कर लक्ष्मण परशुराम से कहते हैं कि आप मुझे अपना फरसा दिखाकर भयभीत करना चाहते हैं और मैं यहाँ आपको ब्राह्मण समझकर आप से युद्ध नहीं करना चाहता।
ऐसा प्रतीत होता है, मानो आपका अभी तक युद्ध भूमि में किसी पराक्रमी से पाला नहीं पड़ा। इसलिए आप अपने आप को बहुत शूरवीर समझ रहे हैं। यह बात सुनकर दरबार में उपस्थित सारे लोग अनुचित-अनुचित कह कर पुकारने लगते हैं और श्री राम अपनी आँखों के इशारे से लक्ष्मण जी को चुप होने का इशारा करते हैं।

प्रश्न 1. सभा के हाय हाय पुकारने का क्या कारण था ?
प्रश्न 2. सभा के अनुचित कहने पर राम ने क्या किया ?

लखन उतर आहुति सरिस भृगुबरकोपु कृसानु।
बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु॥

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद भावार्थ :-  इस प्रकार लक्षमण द्वारा कहा गया प्रत्येक वचन आग में घी की आहुति के सामान था और परशुराम जी को अत्यंत क्रोधित होते देखकर श्री राम ने अपने शीतल वचनों से उनकी क्रोधाग्नि को शांत किया।

श्रेष्ठ जीवन के लिए


मैं प्राणी हिंसा न करने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।
मैं प्राणी चोरी न करने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।
मैं व्याभिचार न करने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।
मैं  झूठ  न  बोलने  की शिक्षा ग्रहण  करता   हूँ।
मैं नशीले प्रदार्थ सेवन न करने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।

सूरदास के पद

(1)
ऊधौ, तुम हौ अति बड़भागी।
अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिन मन अनुरागी।
पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी।
ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि, बूँद न ताकौं लागी।
प्रीति-नदी मैं पाउँ न बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी।
‘सूरदास’ अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यौं पागी।

(2)
मन की मन ही माँझ रही।
कहिए जाइ कौन पै ऊधौ, नाहीं परत कही।
अवधि अधार आस आवन की, तन मन बिथा सही।
अब इन जोग सँदेसनि सुनि-सुनि, बिरहिनि बिरह दही।
चाहति हुतीं गुहारि जितहिं तैं, उत तैं धार बही।
‘सूरदास’ अब धीर धरहिं क्यौं, मरजादा न लही।

(3)
हमारैं हरि हारिल की लकरी।
मन क्रम बचन नंद-नंदन उर, यह दृढ़ करि पकरी।
जागत सोवत स्वप्न दिवस-निसि, कान्ह-कान्ह जक री।
सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्यौं करुई ककरी।
सु तौ ब्याधि हमकौ लै आए, देखी सुनी न करी।
यह तौ ‘सूर’ तिनहिं लै सौंपौ, जिनके मन चकरी।

(4)
हरि हैं राजनीति पढ़ि आए।
समुझी बात कहत मधुकर के, समाचार सब पाए।
इक अति चतुर हुते पहिलैं ही, अब गुरु ग्रंथ पढ़ाए।
बढ़ी बुद्धि जानी जो उनकी, जोग-सँदेस पठाए।
ऊधौ भले लोग आगे के, पर हित डोलत धाए।
अब अपनै मन फेर पाइहैं, चलत जु हुते चुराए।
ते क्यौं अनीति करैं आपुन, जे और अनीति छुड़ाए।
राज धरम तौ यहै ‘सूर’, जो प्रजा न जाहिं सताए।

तुलसीदास


हृदय सिंधु मति सीप समाना ।
स्वाति सारदा कहहिं सुजाना ।
जो  बरषइ  बर बारि विचारू ।
होंहि कवित  मुक्तामनि चारू ।