अपठित बोध ( गद्यांश )

अपठित का अर्थ -

'अ' का अर्थ है 'नहीं' और 'पठित' का अर्थ है - 'पढा हुआ' अर्थात जो पढ़ा नहीं गया हो । प्रायः शब्द का अर्थ उल्टा करने के लिए उसके आगे 'अ' उपसर्ग लगा देते हैं।
यहाँ 'पठित' शब्द से 'अपठित' शब्द का निर्माण 'अ' लगने के कारण हुआ है।

'अपठित' की परिभाषा - 

गद्य एवं पद्य का वह अंश जो पहले कभी नहीं पढ़ा गया हो, ' अपठित' कहलाता है । दूसरे साहबों में , ऐसा उदाहरण जो पाठ्यक्रम में निर्धारित पुस्तकों से न लेकर किसी अन्य पुस्तक या भाषा -खण्ड से लिया गया हो, अपठित अंश माना जाता है ।

विधि एवं विशेषताएँ

  1. प्रस्तुत अवतरण को मन-ही-मन एक-दो बार पढ़ना चाहिए।
  2. अनुच्छेद को पुनः पढ़ते समय विशिष्ट स्थलों को रेखांकित करना चाहिए।
  3. अपठित के उत्तर देते समय भाषा एकदम सरल, व्यावहारिक और सहज होनी चाहिए। बनावटी या लच्छेदार भाषा का प्रयोग करना एकदम अनुचित होगा।
  4. अपठित से संबंधित किसी भी प्रश्न का उत्तर लिखते समय कम-से-कम शब्दों में अपनी बात कहने का प्रयास करना चाहिए।
  5. शीर्षक देते समय संक्षिप्तता का विशेष ध्यान रखना आवश्यक है।
उदाहरण ( उत्तर सहित)

1. संसार में शांति, व्यवस्था और सद्भावना के प्रसार के लिए बुद्ध, ईसा मसीह, मुहम्मद चैतन्य, नानक आदि महापुरुषों ने धर्म के माध्यम से मनुष्य को परम कल्याण के पथ का निर्देश किया, किंतु बाद में यही धर्म मनुष्य के हाथ में एक अस्त्र बन गया। धर्म के नाम पर पृथ्वी पर जितना रक्तपात हुआ उतना और किसी कारण से नहीं। पर धीरे-धीरे मनुष्य अपनी शुभ बुधि से धर्म के कारण होने वाले अनर्थ को समझने लग गया है। भौगोलिक सीमा और धार्मिक विश्वासजनित भेदभाव अब धरती से मिटते जा रहे हैं। विज्ञान की प्रगति तथा संचार के साधनों में वृद्धि के कारण देशों की दूरियाँ कम हो गई हैं। इसके कारण मानव-मानव में घृणा, ईर्ष्या वैमनस्य कटुता में कमी नहीं आई। मानवीय मूल्यों के महत्त्व के प्रति जागरूकता उत्पन्न करने का एकमात्र साधन है शिक्षा का व्यापक प्रसार।

प्रश्न

(क) मनुष्य अधर्म के कारण होने वाले अनर्थ को कैसे समझने लगा है
(i) संतों के अनुभव से
(ii) वर्ण भेद से
(iii) घृणा, ईर्ष्या, वैमनस्य, कटुता से
(iv) अपनी शुभ बुधि से

(ख) विज्ञान की प्रगति और संचार के साधनों की वृद्धि का परिणाम क्या हुआ है|
(i) देशों में भिन्नता बढ़ी है।
(ii) देशों में वैमनस्यता बढ़ी है।
(iii) देशों की दूरियाँ कम हुई है।
(iv) देशों में विदेशी व्यापार बढ़ा है ।

(ग) देश में आज भी कौन-सी समस्या है

(i) नफ़रत की
(ii) वर्ण-भेद की
(iii) सांप्रदायिकता की
(iv) अमीरी-गरीबी की

(घ) किस कारण से देश में मानव के बीच, घृणा, ईर्ष्या, वैमनस्यता एवं कटुता में कमी नहीं आई है?
(i) नफ़रत से
(ii) सांप्रदायिकता से
(iii) अमीरी गरीबी के कारण
(iv) वर्ण-भेद के कारण

(ङ) मानवीय मूल्यों के महत्त्व के प्रति जागरूकता उत्पन्न करने का एकमात्र साधन है
(i) शिक्षा का व्यापक प्रसार
(ii) धर्म का व्यापक प्रसार
(ii) प्रेम और सद्भावना का व्यापक प्रसार
(iv) उपर्युक्त सभी

उत्तर-
(क) (iv) (ख) (iii) (ग) (ii) (घ) (iv) (ङ) (i)

2. संघर्ष के मार्ग में अकेला ही चलना पड़ता है। कोई बाहरी शक्ति आपकी सहायता नहीं करती है। परिश्रम, दृढ़ इच्छा शक्ति व लगन आदि मानवीय गुण व्यक्ति को संघर्ष करने और जीवन में सफलता प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। दो महत्त्वपूर्ण तथ्य स्मरणीय है – प्रत्येक समस्या अपने साथ संघर्ष लेकर आती है। प्रत्येक संघर्ष के गर्भ में विजय निहित रहती है। एक अध्यापक छोड़ने वाले अपने छात्रों को यह संदेश दिया था – तुम्हें जीवन में सफल होने के लिए समस्याओं से संघर्ष करने को अभ्यास करना होगा। हम कोई भी कार्य करें, सर्वोच्च शिखर पर पहुँचने का संकल्प लेकर चलें। सफलता हमें कभी निराश नहीं करेगी। समस्त ग्रंथों और महापुरुषों के अनुभवों को निष्कर्ष यह है कि संघर्ष से डरना अथवा उससे विमुख होना अहितकर है, मानव धर्म के प्रतिकूल है और अपने विकास को अनावश्यक रूप से बाधित करना है। आप जागिए, उठिए दृढ़-संकल्प और उत्साह एवं साहस के साथ संघर्ष रूपी विजय रथ पर चढ़िए और अपने जीवन के विकास की बाधाओं रूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त कीजिए।

प्रश्न

(क) मनुष्य को संघर्ष करने और जीवन में सफलता प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त करते हैं
(i) निर्भीकता, साहस, परिश्रम
(ii) परिश्रम, लगन, आत्मविश्वास
(iii) साहस, दृढ़ इच्छाशक्ति, परिश्रम
(iv) परिश्रम, दृढ़ इच्छा शक्ति व लगन

(ख) प्रत्येक समस्या अपने साथ लेकर आती है–
(i) संघर्ष
(ii) कठिनाइयाँ
(iii) चुनौतियाँ
(iv) सुखद परिणाम

(ग) समस्त ग्रंथों और अनुभवों का निष्कर्ष है
(i) संघर्ष से डरना या विमुख होना अहितकर है।
(ii) मानव-धर्म के प्रतिकूल है।
(iii) अपने विकास को बाधित करना है।
(iv) उपर्युक्त सभी

(घ) ‘मानवीय’ शब्द में मूल शब्द और प्रत्यय है
(i) मानवी + य
(ii) मानव + ईय
(iii) मानव + नीय
(iv) मानव + इय

(ङ) संघर्ष रूपी विजय रथ पर चढ़ने के लिए आवश्यक है
(i) दृढ़ संकल्प, निडरता और धैर्य
(ii) दृढ़ संकल्प, उत्साह एवं साहस
(iii) दृढ़ संकल्प, आत्मविश्वास और साहस
(iv) दृढ़ संकल्प, उत्तम चरित्र एवं साहस

उत्तर-
(क) (iv) (ख) (i) (ग) (iv) (घ) (ii) (ङ) (ii)

3. कार्य का महत्त्व और उसकी सुंदरता उसके समय पर संपादित किए जाने पर ही है। अत्यंत सुघड़ता से किया हुआ कार्य भी यदि आवश्यकता के पूर्व न पूरा हो सके तो उसका किया जाना निष्फले ही होगा। चिड़ियों द्वारा खेत चुग लिए जाने पर यदि रखवाला उसकी सुरक्षा की व्यवस्था करे तो सर्वत्र उपहास का पात्र ही बनेगा। उसके देर से किए गए उद्यम का कोई मूल्य नहीं होगा। श्रम का गौरव तभी है जब उसका लाभ किसी को मिल सके। इसी कारण यदि बादलों द्वारा बरसाया गया जल कृषक की फ़सल को फलने-फूलने में मदद नहीं कर सकता तो उसका बरसना व्यर्थ ही है। अवसर का सदुपयोग न करने वाले व्यक्ति को इसी कारण पश्चाताप करना पड़ता है।

प्रश्न

(क) जीवन में समय का महत्त्व क्यों है?
(i) समय काम के लिए प्रेरणा देता है।
(ii) समय की परवाह लोग नहीं करते।
(iii) समय पर किया गया काम सफल होता है।
(iv) समय बड़ा ही बलवान है।

(ख) खेत का रखवाला उपहास का पात्र क्यों बनता है?
(i) खेत में पौधे नहीं उगते।
(ii) समय पर खेत की रखवाली नहीं करता।
(iii) चिड़ियों का इंतजार करता रहता है।
(iv) खेत पर मौजूद नहीं रहता।।

ग) चिड़ियों द्वारा खेत चुग लिए जाने पर यदि रखवाला उसकी सुरक्षा की व्यवस्था करे तो सर्वत्र उपहास का पात्र ही बनेगा। इस पदबंध का प्रकार होगा
(i) संज्ञा
(ii) सर्वनाम
(iii) क्रिया
(iv) क्रियाविशेषण

(घ) बादल का बरसना व्यर्थ है, यदि
(i) गरमी शांत न हो।
(ii) फ़सल को लाभ न पहुँचे
(iii) किसान प्रसन्न न हो
(iv) नदी-तालाब न भर जाएँ

(ङ) गद्यांश का मुख्य भाव क्या है?
(i) बादल का बरसना
(ii) चिड़ियों द्वारा खेत का चुगना
(iii) किसान का पछतावा करना
(iv) समय का सदुपयोग

उत्तर-
(क) (iii) (ख) (ii) (ग) (i)(घ) (ii) (ङ) (iv)

4. मानव जाति को अन्य जीवधारियों से अलग करके महत्त्व प्रदान करने वाला जो एकमात्र गुरु है, वह है उसकी विचार-शक्ति। मनुष्य के पास बुधि है, विवेक है, तर्कशक्ति है अर्थात उसके पास विचारों की अमूल्य पूँजी है। अपने सविचारों की नींव पर ही आज मानव ने अपनी श्रेष्ठता की स्थापना की है और मानव-सभ्यता का विशाल महल खड़ा किया है। यही कारण है कि विचारशील मनुष्य के पास जब सविचारों का अभाव रहता है तो उसका वह शून्य मानस कुविचारों से ग्रस्त होकर एक प्रकार से शैतान के वशीभूत हो जाता है। मानवी बुधि जब सद्भावों से प्रेरित होकर कल्याणकारी योजनाओं में प्रवृत्त रहती है तो उसकी सदाशयता का कोई अंत नहीं होता, किंतु जब वहाँ कुविचार अपना घर बना लेते हैं तो उसकी पाशविक प्रवृत्तियाँ उस पर हावी हो उठती हैं। हिंसा और पापाचार का दानवी साम्राज्य इस बात का द्योतक है कि मानव की विचार-शक्ति, जो उसे पशु बनने से रोकती है, उसका साथ देती है।

प्रश्न

(क) मानव जाति को महत्त्व देने में किसका योगदान है?
(i) शारीरिक शक्ति का
(ii) परिश्रम और उत्साह का
(iii) विवेक और विचारों का
(iv) मानव सभ्यता का

(ख) विचारों की पूँजी में शामिल नहीं है
(i) उत्साह
(ii) विवेक
(iii) तर्क
(iv) बुधि

(ग) मानव में पाशविक प्रवृत्तियाँ क्यों जागृत होती हैं?
(i) हिंसाबुधि के कारण
(ii) असत्य बोलने के कारण
(iii) कुविचारों के कारण
(iv) स्वार्थ के कारण

(घ) “मनुष्य के पास बुधि है, विवेक है, तर्कशक्ति है’ रचना की दृष्टि से उपर्युक्त वाक्य है
(i) सरल
(ii) संयुक्त
(iii) मिश्र
(iv) जटिल

(ङ) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक हो सकता है
(i) मनुष्य का गुरु
(ii) विवेक शक्ति
(iii) दानवी शक्ति
(iv) पाशविक प्रवृत्ति

उत्तर-
(क) (iii) (ख) (i) (ग) (iii) (घ) (i) (ङ) (ii)

5. बातचीत करते समय हमें शब्दों के चयन पर विशेष ध्यान देना चाहिए, क्योंकि सम्मानजनक शब्द व्यक्ति को उदात्त एवं महान बनाते हैं। बातचीत को सुगम एवं प्रभावशाली बनाने के लिए सदैव प्रचलित भाषा का ही प्रयोग करना चाहिए। अत्यंत साहित्यिक एवं क्लिष्ट भाषा के प्रयोग से कहीं ऐसा न हो कि हमारा व्यक्तित्व चोट खा जाए। बातचीत में केवल विचारों का ही आदानप्रदान नहीं होता, बल्कि व्यक्तित्व का भी आदान-प्रदान होता है। अतः शिक्षक वर्ग को शब्दों का चयन सोच-समझकर करना चाहिए। शिक्षक वास्तव में एक अच्छा अभिनेता होता है, जो अपने व्यक्तित्व, शैली, बोलचाल और हावभाव से विद्यार्थियों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता है और उन पर अपनी छाप छोड़ता है।

प्रश्न

(क) शिक्षक होता है
(i) राजनेता
(ii) साहित्यकार
(iii) अभिनेता
(iv) कवि

(ख) बातचीत में किस प्रकार की भाषा का प्रयोग करना चाहिए?
(i) अप्रचलित
(ii) प्रचलित
(iii) क्लिष्ट
(iv) रहस्यमयी

(ग) शिक्षक वर्ग को बोलना चाहिए?
(i) सोच-समझकर
(ii) ज्यादा
(iii) बिना सोचे-समझे
(iv) तुरंत

(घ) बातचीत में आदान-प्रदान होता है–
(i) केवल विचारों का
(ii) केवल भाषा का
(ii) केवल व्यक्तित्व का
(iv) विचारों एवं व्यक्तित्व का

(ङ) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक है
(i) बातचीत की कला
(ii) शब्दों का चयन
(iii) साहित्यिक भाषा
(iv) व्यक्तित्व का प्रभाव

उत्तर-
(क) (iii) (ख) (iii) (ग) (i) (घ) (iv) (ङ) (ii)



रस विवेचन

【रस विवेचन】
रस की परिभाषा –

रस का सम्बंध आनन्द से है | कविता को पढने या नाटक को देखने से पाठक , श्रोता अथवा दर्शक को जो आनन्द प्राप्त होता है | उसे ही रस कहते है |

रस और उसका स्थाई भाव – प्राचीन भारतीय विद्वानों ने नौ रस माने है | जिसका विवरण निम्नलिखित है –

रस का नाम स्थाई भाव

1.   श्रृंगार - रति (प्रेम)
2.   हास्य - हास
3.   करूण - शोक
4.   रौद्र - क्रोध
5.   वीर - उत्साह
6.   भयानक - भय
7.   वीभत्स - जुगुप्सा (घृणा )
8.   अद्भुत - विस्मय
9.   शान्त - निर्वेद

करुण रस की परिभाषा – 

‘शोक’ नामक स्थाई भाव, विभाव , अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से रस रुप मे परिणत हो तो वहाँ पर करुण रस होता है | अर्थात् किसी प्रिय वस्तु या व्यक्ति के नाश होने से हृदय के अंदर उत्पन्न क्षोभ को करुण रस कहते है |

करुण रस के उदाहरण – 

1. “मणि खोये भुजंग-सी जननी, फन-सा पटक रही थी शीश, अन्धी आज बनाकर मुझको, किया न्याय तुमने जगदीश?”

इस पद मे श्रवण कुमार की मृत्यु पर उनकी माता का करुण दशा का वर्णन किया गया है |
स्पष्टीकरण – 
स्थाई भाव – शोक 
विभाव (आलम्बन) – श्रवण कुमार 
आश्रय – पाठक 
उद्दीपन – महाराज दशरथ की उपस्थिति 
अनुभाव – सिर का पटकना 
संचारी भाव – विषाद, स्मृति, प्रलाप आदि |

2. अभी तो मुकुट बँधा था माथ, हुए कल ही हल्दी के हाथ |
खुले भी न थे लाज के बोल, खिले थे चुम्बन शून्य कपोल ||
हाय रूक गया यहाँ संसार, बना सिंदूर अनल अंगार |
वातहत लतिका यह सुकुमार, पडी है छिन्नाधार ||

3. प्रियपति वह मेरा प्राण प्यारा कहाँ है ?
दु:ख जलनिधि डूबी का सहारा कहाँ है ?
लख मुख जिसका मैं, आज लौं जी सकी हूँ ,
वह हृदय दुलारा नैन तारा कहाँ है ?

4. जथा पंख बिनु खग अति दीना | मनि बिनु फन करिबर कर हीना ||
अस मम जिवन बंधु बिन तोही | जौ जड दैव जियावह मोही ||

हास्य रस की परिभाषा –

किसी की विकृत आकृति, आकार , वेश भूषा चेष्टा आदि को देखकर हृदय में विनोद का भाव जागृत होने पर हास्य रस की उत्पत्ति होती है ‌| हास्य रस का स्थाई भाव हास है | अर्थात् जहाँ हास नामक स्थाई भाव, विभाव , अनुभाव और संचारी भावो से संयोग से रस रुप मे परिणत होता है , तो वहाँ हास्य रस की निष्पत्ति होती है |

हास्य रस के उदाहरण – ‌ 

1. बिंध्य के बासी उदासी तपोब्रतधारी महा बिनु नारि दुखारे |
गोतमतीय तरी, तुलसी, सो कथा सुनि भे मुनिबृन्द सुखारे ||
ह्रै हैं सिला सब चन्द्रमुखी परसे पद – मंजुल – कंज तिहारे |
कीन्ही भली रघुनायकजू करूना करि कानन को पगु धारे ||

इसमे विंध्याचल के तपस्वियों का वर्णन किया गया है |

स्पष्टीकरण- 
स्थाई भाव – हास 
आलम्बन – विंध्याचल के तपस्वी 
आश्रय – पाठक 
उद्दीपन – गौतम की स्त्री का उद्धार होना 
अनुभाव – मूनियों की कथा को सुनना |
संचारी भाव – उत्सुकता हर्ष , चंचलता आदि |

2. काहू न लखा सो चरित विसेखा | सो सरूप नर कन्या देखा ||
मरकट बदन भयंकर देही | देखत हृदय क्रोध भा तेही ||
जेहि दिसि बैठे नारद फूली | सो दिसि तेहि न विलोकी भूली ||
पुनि – पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं | देखि दशा हरगन मुसकाहीं ||

3. सीस पर गंगा हँसे, भुजनि भुजंगा हँसे,
‘हास ही को दंगा भयो नंगा के विवाह में |
कीन्ही भली रघुनायकजू करुना करि कानन को पगु धारे ||

4. जेहि दिदि बैठे नारद फूली | सो देहि तेहिं न विलोकी भूली ||
पुनि- पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहिं | देखि दसा हर गन मुसुकाहीं ||

काव्यगुण

जिस प्रकार मनुष्य के शरीर में शूरवीरता, सच्चरित्रता, उदारता, करुणा, परोपकार आदि मानवीय गुण होते हैं, ठीक उसी प्रकार काव्य में भी प्रसाद, ओज, माधुर्य आदि गुण होते हैं। अतएव जैसे चारित्रिक गुणों के कारण मनुष्य की शोभा बढ़ती है वैसे ही काव्य में भी इन गुणों का संचार होने से उसके आत्मतत्त्व या रस में दिव्य चमक सी आ जाती है।

काव्यगुण काव्य में  आन्तरिक सौन्दर्य तथा रस के प्रभाव एवं उत्कर्ष के लिए स्थायी रूप से विद्यमान मानवोचित भाव और धर्म या तत्व को काव्य गुण या शब्द गुण कहते हैं। यह काव्य में उसी प्रकार विद्यमान होता है, जैसे फूल में सुगन्ध।

आचार्य वामन द्वारा प्रवर्तित रीति सम्प्रदाय को ही गुण सम्प्रदाय भी कहा जाता है

काव्यगुण 

काव्य में  आन्तरिक सौन्दर्य तथा रस के प्रभाव एवं उत्कर्ष के लिए स्थायी रूप से विद्यमान मानवोचित भाव और धर्म या तत्व को काव्य गुण या शब्द गुण कहते हैं। यह काव्य में उसी प्रकार विद्यमान होता है, जैसे फूल में सुगन्ध।

अर्थात काव्य की शोभा करने वाले  या रस को प्रकाशित करने वाले तत्व या विशेषता का नाम ही गुण है।

विशेष : 

1. काव्य गुण और रीति परस्पर आश्रित है।

2. काव्य गुणों पर व्यापक और विस्तृत चर्चा आचार्य वामन ने की।
आचार्य वामन ने गुण को स्पष्ट करते हुए स्वरचित ’काव्यालंकार सूत्रवृत्ति’ ग्रंथ में लिखा है

"काव्याशोभायाः कर्तारी धर्माः गुणाः।       तदतिशयहेतवस्त्वलंकाराः।।’’
अर्थात् शब्द और अर्थ के शोभाकारक धर्म को गुण कहा जाता है। 
वामन के अनुसार ’गुण’ काव्य के नित्य धर्म है।
इनकी अनुपस्थिति में काव्य का अस्तित्व असंभव है।
काव्य गुण मुख्य रूप से तीन प्रकार के होते हैं -
1. माधुर्य  2. ओज  3. प्रसाद

1. माधुर्य गुण 

किसी काव्य को पढने या सुनने से ह्रदय में जहाँ मधुरता का संचार होता है, उसमें माधुर्य गुण होता है। यह गुण विशेष रूप से श्रृंगार, शांत, एवं करुण रस में पाया जाता है।
(अ) माधुर्य गुण युक्त काव्य में कानों को प्रिय लगने वाले मृदु वर्णों का प्रयोग होता है,  जैसे - क,ख, ग, च, छ, ज,  झ, त, द, न, ...आदि। (ट वर्ग को छोडकर)
(ब)  इसमें कठोर एवं संयुक्ताक्षर वाले वर्णों का प्रयोग नहीं किया जाता।
(स) आनुनासिक वर्णों की अधिकता।
(द) अल्प समास या समास का अभाव।
इस प्रकार हम कह सकते हैं,कि  कर्ण प्रिय, आर्द्रता, समासरहितता, चित की द्रवणशीलता और प्रसन्नताकारक     काव्य माधुर्य गुण युक्त काव्य होता है।
1. बसों मोरे नैनन में नंदलाल,
मोहिनी मूरत सांवरी सूरत नैना बने बिसाल।
2. कंकन किंकिन नूपुर धुनि सुनि।
कहत लखन सन राम हृदय गुनि॥

3.फटा हुआ है नील वसन क्या, ओ यौवन की मतवाली ।

   देख अकिंचन जगत लूटता, छवि तेरी भोली भाली ।।

2. ओज गुण 

ओज का शाब्दिक अर्थ है-तेज, प्रताप या दीप्ति ।
 जिस काव्य को पढने या सुनने से ह्रदय में ओज, उमंग और उत्साह का संचार होता है, उसे ओज गुण प्रधान काव्य कहा जाता हैं ।
यह गुण मुख्य रूप से वीर, वीभत्स, रौद्र और भयानक रस में पाया जाता है।
(अ) इस प्रकार के काव्य में कठोर संयुक्ताक्षर वाले वर्णों का प्रयोग होता है।
(ब) इसमें संयुक्त वर्ण 'र' के संयोगयुक्त ट, ठ, ड, ढ, ण का प्राचुर्य होता है।
(स) समासाधिक्य और कठोर वर्णों की प्रधानता होती है।
1. बुंदेले हर बोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी।
    खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।

2. हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुध्द शुध्द भारती।
    स्वयं प्रभा, समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती।

3. हाय रुण्ड गिरे, गज झुण्ड गिरे, फट-फट अवनि पर        शुण्ड गिरे।
   भू पर हय विकल वितुण्ड गिरे, लड़ते-लड़ते अरि  
    झुण्ड गिरे।

3. प्रसाद गुण 

प्रसाद का शाब्दिकार्थ है - निर्मलता, प्रसन्नता।
जिस काव्य को पढ़ने या सुनने से हृदय या मन खिल जाए , हृदयगत शांति का बोध हो, उसे प्रसाद गुण कहते हैं। इस गुण से युक्त काव्य सरल, सुबोध एवं सुग्राह्य होता है। जैसे अग्नि सूखे ईंधन में तत्काल व्याप्त हो जाती है, वैसे ही प्रसाद गुण युक्त रचना भी चित्त में तुरन्त समा जाती है।
यह सभी रसों में पाया जा सकता है।
1. जीवन भर आतप सह वसुधा पर छाया करता है।
    तुच्छ पत्र की भी स्वकर्म में कैसी तत्परता है।

2. हे प्रभो ज्ञान दाता ! ज्ञान हमको दीजिए।
    शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिए।

3. विस्तृत नभ का कोई कोना,
    मेरा न कभी अपना होना।
    परिचय इतना इतिहास यही ,
    उमड़ी कल थी मिट आज चली।।

हिंदी साहित्य का इतिहास


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1. 16वीं-17वीं शताब्दी के युग को ’हिन्दी काव्य का स्वर्ण युग’ किसने माना है ?
(अ) गार्सा-द-तासी          (ब) जार्ज ग्रियर्सन✔️
(स) मिश्रबंधु                  (द) शिव सिंह सेंगर

2. भक्ति आंदोलन को इस्लाम की देन न मानकर दक्षिण के अलवार भक्तों की देन मानने वाले विद्वान
है ?
(अ) हजारी प्रसाद द्विवेदी✔️         (ब) मिश्रबंधु
(स) डाॅ. रामकुमार वर्मा
(द) आचार्य रामचन्द्र शुक्ल

3. भक्ति आंदोलन को ईसाई धर्म के प्रभाव स्वरूप विकसित किसने माना है ?
(अ) ग्रियर्सन ने✔️                (ब) रामचन्द्र शुक्ल ने
(स) हजारी प्रसाद द्विवेदी ने      (द) आबिद हुसैन ने

4. ’’सगुणोपासक भक्त भगवान के सगुण और निर्गुण दोनों रूप मानता है, पर भक्ति के लिए सगुण रूप ही स्वीकार करता है, निर्गुण रूप ज्ञानमर्गियों के लिए छोङ देता है’’ यह कथन किस आलोचक का है ?
(अ) आचार्य रामचन्द्र शुक्ल✔️
(ब) आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
(स) डाॅ. गणपति चन्द्र गुप्त
(द) डाॅ. पिताम्बरदत बङथवाल

5. ’हरिभक्ति रसामृत सिंधु’ के रचयिता है ?
(अ) जगन्न्ााथ                   (ब) तुलसीदास
(स) श्री रूपगोस्वामी✔️       (द) गोकुलनाथ

6. ’भक्ति भावना पराजित मनोवृति की उपज रही है
और न ही इस्लाम धर्म के बलात् प्रचार के परिणाम स्वरूप उत्पन्न हुई है। हिन्दु सदा से आशावादी रहा है।’ कथन है ?
(अ) आचार्य शुक्ल      (ब) हजारी प्रसाद द्विवेदी✔️
(स) बच्चन सिंह         (द) जार्ज ग्रियर्सन

7. ’’हिन्दू पूजै देहरा, मुसलमान मसीद।’’ पद के रचयिता है ?
(अ) कबीर                   (ब) रैदास
(स) ज्ञानदेव                 (द) नामदेव✔️

8. नामदेव के गुरू कौन थे ?
(अ) विसोवा खेचर✔️        (ब) ज्ञानदेव
(स) एकनाथ                     (द) तुकाराम

9. सुमेलित कीजिएः
(सम्प्रदाय)                  (प्रवर्तक)
(क) तपसी शाखा          1. अग्रदास
(ख) रसिक सम्प्रदाय      2. जगजीवन दास
(ग) सत्यनामी सम्प्रदाय   3. हितहरिवंश
(घ) राधावल्लभ सम्प्रदाय 4. कील्हदास
कूटः
क ख ग घ
(अ) 4 1 2 3✔️         (ब) 1 2 3 4
(स) 4 1 3 2              (द) 4 2 1 3

10. सुमेलित कीजिएः
(आचार्य)             (दर्शन)
(क) शंकराचार्य     1. विशिष्टाद्वैतवाद
(ख) वल्लभाचार्य    2. द्वैताद्वैतवाद
(ग) रामानुजाचार्य   3. अद्वैतवाद
(घ) निम्बार्क         4. शुद्धाद्वैतवाद
कूटः
क ख ग घ
(अ) 3 4 1 2✔️           (ब) 2 3 1 4
(स) 2 4 1 3                (द) 3 4 2 1

11. भक्ति आंदोलन को निर्गुण भक्ति साहित्य और सगुण भक्ति साहित्य दो भागों में किसने विभाजित किया ?
(अ) रामचंद्र शुक्ल       (ब) हजारी प्रसाद द्विवेदी✔️
(स) रामकुमार वर्मा      (द) गणपतिचन्द्र गुप्त

12. ’’मेरा साहिब एक है, दूजा कहा न जाय, साहिब दूजा जो कहुँ साहब खरा रिसाय।’’ पद के रचयिता
है ?
(अ) दादू                  (ब) कबीर✔️
(स) पीपा                 (द) धन्ना

13. ’’संतमत के समस्त कवियों में कवि कबीर सबसे अधिक प्रभावशाली एवं मौलिक थे।’’ कथन है ?
(अ) रामचन्द्र शुक्ल              (ब) डाॅ. नगेन्द्र✔️
(स) हजारीप्रसाद द्विवेदी       (द) रामकुमार वर्मा

14. कबीर की रचनाओं को धर्मदास द्वारा ’बीजक’ में सम्पादित कब किया गया ?
(अ) सन् 1468 ई.           (ब) सन् 1565 ई.
(स) सन् 1464 ई.✔️      (द) सन् 1562 ई.

15. ’’तुलसी को छोङकर हिन्दी भाषी जनता पर कबीर के समान या उनसे अधिक प्रभाव किसी कवि का नहीं पङा।’’ उक्त कथन है ?
(अ) श्यामसुंदर दास✔️        (ब) डाॅ. रामकुमार वर्मा
(स) हजारी प्रसाद द्विवेदी      (द) डाॅ. नगेन्द्र

16. ’’हिन्दू तुरक प्रमाण रमैनी सबदी साखी,
पच्छपात नहिं बचन सबहिं के हित की भाखी,
आरूढ दसा है जगत पर, मुख देखी नाहिन भनी,
कबीर कानि राखी नहीं, वर्णश्रम षट् दरसनी।’’ पक्तियों के रचनाकार है ?
(अ) नाभादास✔️            (ब) अनंतदास
(स) जनगोपाल                (द) संत पीपा

17. ’’तुम जिन जानो गीत है, यह निज ब्रहम विचार,
मैं कहता हूँ आंखिन देखी, तूँ कहता कागद की लेखी।’’ के रचनाकार है ?
(अ) कबीर✔️                 (ब) संत पीपा
(स) रैदास                      (द) सुंदरदास

18. निम्न में से किस संत कवि की काव्यभाषा निमाङी थी ?
(अ) जम्भनाथ                      (ब) दादूदयाल
(स) संत सींगा✔️                 (द) बाबालाल

19. दादूदयाल की रचनाओं का प्रामाणिक संकलन ’दादूदयाल’ का संकलन किसके द्वारा किया गया ?
(अ) श्यामसुंदर दास द्वारा
(ब) परशुराम चतुर्वेदी द्वारा✔️
(स) पुरोहित हरिनारायण शर्मा
(द) पीताम्बर दत्त बङथवाल

20. मलूकदास की रचनाओं में सर्वाधिक महत्वपूर्ण रचना है ?
(अ) ज्ञानबोध✔️                 (ब) रतनखान
(स) बारह खङी                   (द) सुख सागर
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अलंकार ( कक्षा - 10 )

अलंकार 
अलंकार शब्द 'अलं' तथा 'कार' शब्दों के योग से बना है जिसका अर्थ है अलंकृत अथवा सुशोभित करने वाला। संज्ञा शब्द के रूप में इसका अर्थ है आभूषण अथवा गहना। 'काव्य' के साथ इस शब्द का प्रयोग करने से काव्यालंकार' समास कहते है जिसका अर्थ होता है काव्य की शोभा बढ़ाने वाला धर्म।

'अलंकार' शब्द की  की व्युत्पत्ति दो प्रकार से की जा सकती है -

1. 'अलंक्रियते अनेन इति अलंकार:* अर्थात जिसके द्वारा कोई वस्तु या विषय अलंकृत किया जाता है, वह अलंकार है। इस व्युत्पत्ति के अनुसार अलंकार एक 'उपादान' या 'कारण' है जो किसी को अलंकृत करता है।
2. 'अलंकरोति इति अलंकार:' अर्थात जो अलंकृत करता है, वह अलंकार है। इस व्युत्पत्ति के अनुसार अलंकार वस्तु का अंग अथवा शोभवर्द्धक धर्म सिद्ध होता है जिससे वस्तु का सौंदर्य निखरता है।
अलंकारों के भेद
1. शब्दालंकार
2. अर्थालंकार
3. उभयालंकार

शब्दालंकार - जहाँ काव्य के शब्दों  में चमत्कार होता है, वह शब्दालंकार होते हैं। यदि उन शब्दों के स्थान पर उनके पर्यायवाची शब्द रख दिये जायँ तो वह चमत्कार नष्ट हो जाता है। अतः शब्दगत प्रधानता के कारण ही उन्हें शब्दालंकार कहा जाता है। जैसे- अनुप्रास, यमक , श्लेष, वक्रोक्ति, पुनरुक्तवदाभास, पुनरुक्तिप्रकाश, विप्सा

अर्थालंकार - जहाँ काव्य के अर्थों में चमत्कार पाया जाता है, वहाँ अर्थालंकार होते हैं। यदि शब्दों के स्थान पर उसके पर्यायवाची शब्द रख दिए जायँ तो भी अर्थों में चमत्कार बना रहता है। जैसे - उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, अतिशयोन्ति आदि अलंकार।

उभयालंकार - जहाँ काव्य के शब्दों और अर्थों इन दोनों में चमत्कार पाया जाय, वहाँ उभयालंकार होते हैं। इनकी संख्या बहुत कम है। जैसे-  संसृष्टि, संकर,

श्लेष अलंकार 
श्लेष अलंकार श्लिष्ट पदों के प्रयोग द्वारा जहाँ अनेक अर्थों का अभिधान होता है,  वहाँ श्लेष अलंकार होता है।
'श्लेष' शब्द 'श्लिष्' धातु से निष्पन्न हुआ है जिसका अर्थ मिला हुआ , सटा हुआ अथवा, चिपका हुआ। 
जहाँ एक ही शब्द में अनेक अर्थ चिपके रहते हैं, उसे 'श्लिष्ट' कहते है।

श्लेष अलंकार के दो भेद हैं
1. अभंग श्लेष
2. सभंग श्लेष

अभंग श्लेष जहाँ शब्द के टुकड़े किए बिना ही उसके अनेक अर्थ निकलें , वहाँ अभंग श्लेष होता है।

सभंग श्लेष जहाँ एक ही शब्द के टुकड़े करने पर उसके अनेक  अर्थ निकलें, वहाँ सभंग श्लेष होता है।
उदाहरण :- 
1. पानी गए न ऊबरै, मोती मानुस चून।
2. चरण धरत, चिंता करत, भावै नींद न सोर।
सुबरन को ढूँढत फिरत, कवि व्यभिचारी चोर।
3. जो रहीम गति दिप की , कुल कपूत की सोय।
बारे उजियारो करै, बढ़े अँधेरो होय।
4. संतत सुरानीक हित जेहि।
     बहुरि सक्र सम बिनवहु तेहि
5. अजौं तर्यौना ही रहौ, श्रुति सेवत इकअंग।
      नाक बास बेसरि लहो, बसि मुकुतन के संग।
6. चिरजीवौ , जोरी जुरै, क्यों न सनेह गंभीर।
को घटि, ये वृषभनुजा वे हलधर के वीर।
7. मेरी भव बाधा हरो, राधा नागरि सोय।
जा तन की झांईं परै, स्यामु हरित दुति होय।
8. नव जीवन दो, घनस्याम, हमें।

उत्प्रेक्षा अलंकार

उत्प्रेक्षा अलंकार - उपमेय में उपमान की संभावना करने पर उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। *उत्प्रेक्षा का शब्दार्थ* है उपमेय में उत्कट(तीव्र, उग्र) रूप से उपमान को देखना अथवा उसकी संभावना करना। 
संभावना में ज्ञान की श्रेणी संदेह से आगे और निश्चय से पीछे रहती है। वह निश्चित होकर निश्चय की ओर उत्कट रूप से झुकी रहती है जिसके लिए 'मानो' 'जानो' आदि शब्दों का प्रयोग किया जाता है।
'उत्प्रेक्षा' शब्द *उत् +प्रेक्षा* (प्रेक्षण) से बना है जिसमें उत्कृष्ट रूप से उपमान का प्रेक्षण संभावित रहता है।
 (केवल पढ़ना है)
उत्प्रेक्षा अलंकार के भेद - 
1. वस्तुत्प्रेक्षा ( स्वरूपोत्प्रेक्षा ) 2. हेतूत्प्रेक्षा   3. फलोत्प्रेक्षा
उदाहरण
1. नील परिधान बीच सकुमार,
    खुल रहा मृदुल अधखुला अंग।
    खिला हो ज्यों बिजली का फूल,
    मेघवन बीच गुलाबी रंग।
2. चमचमात चंचल नयन, बिच घूंघट पर झीन।
    मानहु सुरसरिता विमल, जल उछलत युग मीन।
3. जान पड़ता नेत्र देख बड़े बड़े।
    हिरकों में गोल नीलम हैं जड़े।।
4. भाल लाल बेंदी ललन, आखत रहे विराजि ।
    इंदुकला कुज में बसी, मनों राहुभय भाजि।।
5. मोर मुकुट की चन्द्रिका, यौं राजत नंदनंद ।
    मनु ससि सेखर की अकस, किय सेखर सत चंद
6. रोज नहात है निरधि में ससि, तो मुख की समता लहिबे को।
7. विकसि प्रात में जलज ये, सरजल में छबि देत।
    पूजत भानुहि मनहु ये, सिय मुख समता हेत।।

अतिशयोक्ति अलंकार 

अतिशयोक्ति शब्द अतिशय + उक्ति के योग से बना है जिसका अर्थ है अतिशय अर्थात बढ़ाचढ़ाकर की गई उक्तियों का कथन।
(केवल पढ़ना है)
इस अलंकार में उपमेय को छिपा कर उपमान के साथ उसका अभेद दिखाया जाता है जिसका अभिप्राय यह है कि उपमान से उसकी अभिन्नता अथवा अभेदप्रतिति कराई जाती है।
अतिशयोक्ति अलंकार के भेद
1. रूपकातिशयोक्ति 2. भेदकातिशयोक्ति 3. संबंधातिशयोक्ति
4. असंबंधातिशयोक्ति 5. अक्रमातिशयोक्ति 6. अत्यन्तातिशयोक्ति

उदाहरण
1. कनकलता पर चंद्रमा, धरे धनुष द्वै प्राण ।
2. और कछु बोलनि चलनि, और कछु मुसकानि।
    और कछु सुख देते है, सकै न बैन बखानि।
3. पंखुरी लगै गुलाब की, परिहै गात खरोंच।
4. विधि हर हर गुरु गोविंद बानी।
    कहत साधु महिमा सकुचानी।।
5. प्रिय प्रदेश प्रयाण संग, तजे विरहिणी प्राण।
6. हनुमान की पूँछ में, लगन न पाई आग।
लंका सारी जल गई, गये निसाचर भाग।।
कुछ विद्वानों ने *चपलतिशयोक्ति* भेद और माना है
राम नाम श्रुति-पुट परत, पातक पुंज पराहि।

*मानवीकरण* अलंकार (personification)

जड़ प्रदार्थों , प्राकृतिक दृश्यों तथा अमूर्त वस्तुओं का वर्णन जब उन्हें मानव अनुभूतियों  का रूप और व्यक्तित्व प्रदान करते हुए किया जाता है तो वहाँ मानवीकरण अलंकार होता है
उदाहरण :-
1. बीती विभावरी जाग री ।
     अम्बर पनघट में डुबों रही, तारा घट ऊषा नागरी।
2. धीरे धीरे उतर क्षितिज से आ बसंत रजनी।
3. दिवसावसान का समय
    मेघमय आसमान से उत्तर रही
    संध्या सुंदरी परी सी
    घिरे - धीरे

इतिहास लेखन की पद्धतियाँ

(1) वर्णानुक्रम पद्धति - गार्सा द तासी, शिव सिंह सेंगर

(2) कालानुक्रम पद्धति - ग्रियर्सन, मिश्रबन्धु
(3) वैज्ञानिक पद्धति - गणपति चंद्र गुप्त
(4) विधेयवादी पद्धति - रामचंद्र शुक्ल, तेन
(5) आलोचनात्मक पद्धति - डॉ. रामकुमार वर्मा 
(6) समाज शास्त्रीय पद्धति - 
1. वर्णानुक्रम पद्धति :- वर्ण + अनुक्रम
वर्णमाला के वर्णों के अनुक्रम से रचनाकारों का परिचय देना, वर्णानुक्रम पद्धति है। यह पद्धति शब्दकोश की तरह है।
* सबसे प्राचीन पद्धति
* अमनोवैज्ञानिक पद्धति
- गार्सा द तासी ने अपने इतिहास ग्रन्थ 'इस्त्वार द ला लितरेत्युर ऐंदुई ए ऐंदुस्तानी' में तथा शिव सिंह सेंगर ने 'शिवसिंह सरोज' में इसी पद्धति का प्रयोग किया ह 
2. कालानुक्रम पद्धति :- काल + अनुक्रम 
* जन्म तिथि के आधार पर रचनाकारों का परिचय देना
* ग्रियर्सन ने अपने इतिहास ग्रन्थ 'द मॉर्डन वर्नाक्युलर लिट्रेचर ऑफ हिंदुस्तान' में इसी पद्धति का प्रयोग किया है। 
3. वैज्ञानिक पद्धति :- 
- प्रवृत्तियों का विश्लेषण
- भाषा के विकास क्रम को ध्यान में रखना 
- रचनाकारों पर युगीन परिस्थितियों का प्रभाव
- सबसे पहले पद्धति का प्रयोग :-  डॉ. गणपति चंद्र गुप्त 'हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास' में
4. विधेयवादी पद्धति :- जनक - तेन ( जाति, वातावरण, क्षण)
- हिंदी में प्रथम प्रयोक्ता - आचार्य रामचंद्र शुक्ल
* रचनाकारों का परिचय - कालानुक्रम पद्धति में
- प्रवृत्तियों का विश्लेषण, तुलनात्मक दृष्टिकोण
5. आलोचनात्मक पद्धति :- रचनाकारों व रचनाओं के परिचय से ज्यादा रचनाओं के मूल्यांकन पर बल देना 
* रचनाकारों के परिचय के साथ साथ शास्त्रीय मान्यताओं के आधार पर रचनाओं की समीक्षा 
6. समाज शास्त्रीय पद्धति  :- रचनाकारों के परिचय के साथ साथ इस बात पर बल देना की उसने समाज से क्या कुछ ग्रहण किया तथा रचनाकार का समाज पर प्रभाव

हिंदी साहित्य का इतिहास

 हिंदी साहित्य का इतिहास

'इतिहास' शब्द की  व्युत्पति एवं अर्थ :- 

व्युत्पति :- इति (ऐसा) + ह ( निश्चित ही ) + आस ( घटित हुआ / था ) 

अर्थ :-  ऐसा निश्चित ही था / ऐसा निश्चित ही घटित हुआ

इतिहास की परिभाषाएँ :- 

1. हेरोडोट्स :- ये विश्व मे इतिहास के जनक माने जाते हैं। इनके द्वारा रचित ' हिस्टोरिका' इतिहास की प्राचीनतम पुस्तक है । इन्होंने इतिहास की परिभाषा देते हुए कहा कि-
"सत्य घटनाओं का क्रमबद्ध अध्ययन इतिहास है।"

2. कर्नल जेम्स टॉड :- 
"अतीत की घटनाओं का वर्तमान के संदर्भ में अवलोकन इतिहास है ।"

3. महर्षि वेद व्यास :- 
"धर्मार्थकाममोक्षेषु उपदेशसमन्वित् 
पूर्व वृत्त सत्याख्यानं इति इतिहासमुच्च्यते ।"

4. चाल्स डार्विन :- इन्होंने इतिहास की परिभाषा विकासवादी दृष्टिकोण से दी है-
"सृष्टि का बाह्य विकास उसके आंतरिक विकास का परिणाम है । किसी कार्य के पीछे कुछ निश्चित कारण होते हैं। इसी कारण की शृंखला को खोजते हुए आंतरिक विकास प्रक्रिया को समझना विकास है।"

5. तेन :- आधुनिक इतिहास के जनक इन्होंने इतिहास लेखन में जाति, वातावरण , क्षण को विशेष महत्त्व दिया है।
"किसी जाति विशेष की, वातावरण विशेष से प्रभावित, क्षण विशेष में निर्मित प्रवृत्तियों एवं घटनाओं का विश्लेषण इतिहास है ।"
* तेन विधेयवादी पद्धति के जनक माने जाते हैं।

6. कार्लाइल / कार्लायल :- 
"इतिहास एक ऐसा दर्शन है जो दृष्टांतों के माध्यम से शिक्षा देता है ।"

7. डॉ. नगेन्द्र :-
"बदलती हुई अभिरुचियों का इतिहास साहित्येतिहास है, जिसका सीधा संबंध आर्थिक क्रियाओं से है।"

8. आचार्य रामचंद्र शुक्ल :- 
"प्रत्येक युग का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्तियों का संचित प्रतिबिंब है । ये चित्तवृत्तियाँ प्रत्येक युग में बदलती रहती है। बदलती हुई चित्तवृत्तियों के साथ साहित्य परंपरा का सामंजस्य दिखाना ही इतिहास है।"

9. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी :-
"मानवीय प्रवृतियों की खोज इतिहास है।"

10. डॉ. बच्चन सिंह :- 
"अतीत की घटनाओं के कारण एवं वर्तमान में उनकी उपयोगिता का मूल्यांकन इतिहास है तथा साहित्यिक दृष्टि से इनका विश्लेषण साहित्येतिहास है।"





पाठ्यपुस्तक : क्षितिज भाग - 2 (सूरदास के पद)

पदों का सार

(१) पहले पद में गोपियाँ उद्धव से कहतीं हैं कि वे बहुत भाग्यशाली हैं जो कृष्ण के पास रहकर भी उनके प्रेम में नहीं बंधे। कमल का पत्ता जैसे जल में रहकर भी उससे अछूता रहता है, तेल की मटकी (गगरी) पानी में डुबोए जाने पर भी नहीं भीगती, उसी तरह वे भी कृष्ण के प्रेम से प्रभावित नहीं हुए। वे कहती हैं कि हम भोली ब्रज की गोपियाँ कृष्ण के अनुराग में ऐसे कृष्णमय हो गई हैं, जैसे गुड़ की मिठास से आकर्षित होकर चींटी गुड़ में चिपक जाती हैं उसी प्रकार हम भी कृष्ण प्रेम में उनसे अलग नहीं हो सकती।


(२) दूसरे पद में गोपियाँ कहती हैैं कि उनके मन की इच्छाएँँ तो मन मेें ही दबकर रह गई हैैं। उन्हेंं कृष्ण के लौटने की आशा थी और यही आशा उनका जीवन थी। परंतु अब उद्धव के सन्देेेश ने तो जैसे सब पर पानी ही फेर दिया है। विरह की अग्नि ने मर्यादाओं को तोड़ दिया है। सब्र का बाँध टूटा जा रहा है। कृष्ण के प्रति प्रेम जो कभी उन्होंने किसी पर प्रकट नहीं किया था, अब उलाहनों के साथ सब पर प्रकट हो रहा है।

(३) तीसरे पद में गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि कृष्ण ही हमारे लिए एक मात्र सहारा हैं। जैसे हारिल पक्षी अपनी लकड़ी के टुकड़े को कभी भी नहीं छोड़ता, उसी प्रकार हम भी कृष्ण को कभी भी अपने हृदय से छोड़ नही सकतीं। दिन रात, सोते जागते हम उनका ही नाम रटती हैं। तुम्हारी योग की बाते हमारे लिए कड़वी ककड़ी के जैसी है। ये बातें हमें अच्छी नही लगती। जिनका मन चंचल है, उन्हें यह योग की शिक्षा दीजिए।


(४) चौथे पद में गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि अब तुम्हारी बातों से हम समझ गई हैं कि मथुरा जाकर कृष्ण ने राजनीति भी सीख ली है। वे पहले से ही चतुर हैं। और अब अधिक चतुर बन गए हैं। तभी तो तुम्हें यहाँ हमारे पास योग का संदेश देकर भेजा है। पहले हम अपना मन तो उनसे वापस ले लें, जो उन्होनें मथुरा जाने से पहले चुरा लिया था। वे दूसरों से तो अनीति छोड़ने की बात करते हैं, किंतु हमसे वे अन्याय करते हैं। हमारे साथ ऐसा व्यवहार करना, हमें सताना और हमें विरह की आग में जलने देना क्या अन्याय नहीं है ? एक राजा का धर्म प्रजा का हित करना होता है, उसे सताना नहीं होता है। तो कृष्ण अपना राजधर्म किस प्रकार निभा रहे हैं ? वे तो हम सब गोपियों को सता रहे हैं। क्या यह उनका राजधर्म अथवा न्याय हैं ?

जार्ज पंचम की नाक

जार्ज पंचम की नाक कमलेश्वर

यह बात उस समय की है जब इंग्लैंण्ड की रानी ऐलिज़ाबेथ द्वितीय मय अपने पति के हिन्दुस्तान पधारने वाली थीं। अखबारों में उनके चर्चे हो रहे थे। रोज़ लन्दन के अखबारों में ख़बरें आ रही थीं कि शाही दौरे के लिए कैसी-कैसी तैयारियाँ हो रही हैं.... रानी ऐलिजाबेथ का दर्ज़ी परेशान था कि हिन्दुस्तान, पाकिस्तान और नेपाल के दौरे पर रानी क्या पहनेगी ? उनका सेक्रेटरी और जासूस भी उनके पहले ही इस महाद्वीप का तूफान दौरा करने वाला था.. आखिर कोई मजाक तो था नहीं, ज़माना चूंकी नया था, फौज-फाटे के साथ निकलने के दिन बीत चुके थे इसलिए फोटोग्राफरों की फौज तैयार हो रही थी....
इंग्लैंड के अखबारों की कतरनें हिन्दुस्तान अखबारों में दूसरे दिन चिपकी नज़र आती थी.... कि रानी ने एक ऐसा हल्के नीले रंग का सूट बनवाया है, जिसका रेशमी कपड़ा हिन्दुस्तान से मंगवाया गया है... कि करीब 400 पौंड खर्चा उस सूट पर आया है।
रानी ऐलिज़ाबेथ की जन्मपत्री भी छपी। प्रिन्स फिलिप के कारनामे छपे, और तो और उनके नौकरो, बावर्चियों खानसामों, अंगरक्षकों की पूरी-की-पूरी जीवनियां देखने में आई ! शाही महल में रहने और पलनेवाले कुत्तों तक की जीवनियाँ देखने में आईं ! शाही महल में रहने और पलने वाले कुत्तों तक की तस्वीरें अखबारों में छप गईं ....
बड़ी धूम थी। बड़ा शोर-शराबा था। शंख इंग्लैंड में बज रहा था, गूँज हिन्दुस्तान में आ रही थी।
इन अख़बारों से हिन्दुस्थान में सनसनी फैल रही थी.,....राजधानी में तहलका मचा हुआ था। जो रानी 5000 रुपये का रेशमी सूट पहनकर पालम के हवाई अड्डे पर उतरेगी उसके लिए कुछ तो होना ही चाहिए। कुछ क्या, बहुत कुछ होना चाहिए। जिसके बावर्ची पहले महायुद्ध में जान हथेली पर लेकर लड़ चुके हैं, उसकी शान-शौकत से क्या कहने और वही रानी दिल्ली आ रही है....
नई दिल्ली ने अपनी तरफ देखा और बेसाख़्ता मुंह से निकल गया –वह आएं हमारे घर, खुदा की रहमत... कभी हम उनकों कभी अपने घर को देखते हैं। और देखते-देखते नई दिल्ली का कायापलट होने लगा।
और करिश्मा तो यह था कि किसी ने किसी से नहीं कहा, किसी ने किसी को नहीं देखा- पर सड़कें जवान हो गई, बुढ़ापे की धूल साफ हो गई। इमारतों ने नाज़नीनों की तरह श्रृंगार किया....
लेकिन एक बड़ी मुश्किल पेश थी.... वह थी जार्ज पंचम की नाक ! नई दिल्ली में सब कुछ था, सब कुछ होता जा रहा था, सब कुछ हो जाने की उम्मीद थी, पर पंचम की नाक की बड़ी मुसीबत थी ! दिल्ली में सब कुछ था...सिर्फ नाक नहीं थी।
इस नाक की भी एक लम्बी दास्तान है। इस नाक के लिए बड़े तहलके मचे थे किसी वक्त ! आन्दोलन हुए थे। राजनीतिक पार्टियों ने प्रस्ताव भी दिये थे। गर्मागर्म बहसें भी हुई थीं। अखबारों के पन्ने रंग गए थे। बहस इस बात पर थी कि जार्ज पंचम की नाक रहने दी जाए या हटा दी जाए ! और जैसा कि हर राजनीतिक आन्दोलन में होता है, कुछ पक्ष में थे कुछ विपक्ष में और ज्यादातर लोग खामोश थे। ख़ामोश रहनेवालों की ताकत दोनों तरफ थी...
यह आन्दोलन चल रहा था। जार्ज पंचम की नाक के लिए हथियारबंद पहरेदार तैनात कर दिए गए थे.... क्या मजाल कि कोई उनकी नाक तक पहुँच जाए। हिन्दुस्तान में जगह-जगह ऐसी नाकें खड़ी थीं और जिन तक लोगों के हाथ पहुँच गये उन्हें शानों –शौकत के साथ उतारकर अजायबघरों में पहुँचा दिया गया। शाही लाटों की नाकों के लिए गुरिल्ला युद्ध होता रहा।.....
उसी ज़माने में यह हादसा हुआ-इंडिया गेट के सामने वाली जार्ज पंचम की लाट की नाक एकाएक गायब हो गई ! हथियारबंद पहरेदार अपनी जगह तैनात रहे। गश्त लगाते रहे...और लाट चली गई।
रानी आए और नाक न हो ! ...एकाएक यह परेशानी बढ़ी। बढ़ी सरगर्मी शुरू हुई। देश के ख़ैरख़्वाहों की एक मीटिंग बुलाई गई और मसला पेश किया गया कि क्या किया जाए ?’’ वहां सभी एकमत से इस बात पर सहमत थे कि अगर यह नाक नहीं है, तो हमारी भी नाक नहीं रह जाएंगी....
उच्च स्तर पर मशवरे हुए। दिमाग खरोंचे गए और यह तय किया गया कि हर हालत में इस नाक का होना बहुत जरूरी है। यह तय होते ही एक मूर्तिकार को हुक्म दिया गया कि फौरन दिल्ली में हाजिर हो। मूर्तिकार यों तो कलाकार था, पर ज़रा पैसे से लाचार था। आते ही उसने हुक्कामों के चेहरे देखे ... अजीब परेशानी थी उन चेहरों पर; कुछ लटके हुए थे, कुछ उदास थे और कुछ बदहवास थे। उनकी हालत देखकर लाचार कलाकार की आँखों में आँसू आ गए ....तभी एक आवाज सुनाई दी ‘‘मूर्तिकार ! जार्ज पंचम की नाक लगनी है।’’
मूर्तिकार ने सुना और जवाब दिया नाक लग जाएगी पर मुझे पता होना चाहिए कि यह लाट कब और कहां बनी थी ? इस लाट के लिए पत्थर कहाँ से लाया गया था ?’’
सब हुक्कामों ने एक -दूसरे की तरफ ताका...एक की नज़र ने दूसरे से कहा कि यह बताना ज़िम्मेदारी तुम्हारी है ! खैर मामला हल हुआ। एक क्लर्क को फोन किया गया और इस बात की पूरी छानबीन करने का काम सुपुर्द कर दिया गया !.... पुरातत्त्व विभाग की फाइलों के पेट चीरे गये, पर कुछ भी पता नहीं चला। क्लर्क ने लौटकर कमेटी के सामने कांपते हुए बयान किया- ‘‘सर ! मेरी खता माफ हो फाइलें सब कुछ हज़म कर चुकी हैं !’’
हुक्मरानों के चेहरों पर उदासी के बादल छा गए । एक खास कमेटी बनाई गई और उसके जिम्मे यह काम दे दिया गया कि जैसे भी हो यह काम होना है और इस नाक का दारोमदार आप पर है । आखिर मूर्तिकार को फिर बुलाया गया...उसने मसला हल कर दिया । वह बोला-"पत्थर की किस्म का ठीक पता नहीं चलता, तो परेशान मत होइए...मैँ हिन्दुस्तान के हर पहाड़ पर जाऊँगा और ऐसा ही पत्थर खोजकर लाऊँगा !" कमेटी के सदस्यों की जान-में-जान आई । सभापति ने चलते-चलते गर्व से कहा-"ऐसी क्या चीज, हैं जो अपने हिन्दुस्तान में मिलती नहीं । हर चीज़ इस देश के गर्भ में छिपी है...जरूरत खोज लाने की है...खोज करने के लिए मेहनत करनी होगी, इस मेहनत का फल हमें मिलेगा...आने वाला जमाना खुशहाल होगा ।"
वह छोटा-सा भाषण फौरन अखबारों में छप गया ।
मूर्तिकार हिन्दुस्तान के पहाड़ी प्रदेशों और पत्थरों की खानों के दौरे पर निकल पड़े। कुछ दिन बाद वह हताश लौटे, उनके चेहरे पर लानत बरस रही थी, उन्होंने सिर लटकाकर खबर दी…"हिन्दुस्तान का चप्पा-चप्पा खोज डाला, पर इस किस्म का पत्थर कहीं नहीं मिला। यह पत्थर विदेशी है!"
सभापति ने तैश में आकर कहा-"लानत है आपकी अक्ल पर ! विदेशों की सारी चीज हम अपना चुके हैं...दिल-दिमाग, तौर-तरीके और रहन-सहन...जब हिन्दुस्तान में बाल डांस तक मिल जाता है तो पत्थर क्यों नहीं मिल सकता !"
मूर्तिकार चुप खड़ा था । सहसा उसकी आँखों में चमक आ गई । उसने कहा-"एक बात मैं कहना चाहूंगा, लेकिन इस शर्त पर कि यह बात अखबारवालों तक न पहुंचे..."
सभापति की आँखों में भी चमक आई । चपरासी को हुक्म हुआ और कमरे के सब दरवाजे बन्द कर दिए गए । तब मूर्तिकार ने कहा-"देश में अपने नेतायों की मूर्तियाँ भी हैं...अगर इजाजत हो...अगर आप लोग ठीक समझें, तो मेरा मतलब है, तो...जिसकी नाक इस लाट पर ठीक बैठे. उसे उतार लाया जाए..."
सवने सबकी तरफ़ देखा । सबकी आँखों में एक क्षण की बदहवासी के बाद खुशी तैरने लगी । सभापति ने धीमे से कहा…"लेकिन बड़ी होशियारी से !"
और मूर्तिकार फिर देश-दौरे पर निकल पड़ा । जार्ज पंचम की खोई हुई नाक का नाप उसके पास था । दिल्ली से वह बम्बई पहुंचा...दादाभाई नौरोजी, गोखले, तिलक, शिवाजी, कावस जी जहाँगीर-सबकी नाकें उसने टटोलीं, नापीं और गुजरात की ओर भागा-गांधीजी, सरदार पटेल, विट्ठलभाई पटेल, महादेव देसाई की मूर्तियों को परखा और बंगाल की ओर चला-गुरूदेव रवीन्द्रनाथ, सुमाषचन्द्र बोस, राजा रामामोहन राय आदि को भी देखा, नाप-जोख की और बिहार की तरफ चला । बिहार होता हुआ उत्तर प्रदेश की ओर आया...चन्द्रशेखर आजाद, बिस्मिल, मोतीलाल नेहरु, मदमोहन मालवीय की लाटों के पास गया...घबराहट में मद्रास भी पहुंचा, सत्यमूर्ति को भी देखा, और मैसूर, केरल आदि सभी प्रदेशों का दौरा करता हुआ पंजाब पहुंचा…लाला लाजपतराय और भगतसिंह की लाटों से मी सामना हुआ । आखिर दिल्ली पहुंचा और अपनी मुश्किल बयान की-"पूरे हिन्दुस्तान की मूर्तियों की परिक्रमा कर आया । सबकी नाकों का नाप लिया…पर जार्ज पंचम…की नाक से सब बड़ी…निकलीं!.."
सुनकर सब हताश हो गए और झुंझलाने लगे । मूर्तिकार ने ढाढ़स बंधाते हुए आगे कहा, "सुना था कि बिहार सेक्रेटेरियट के सामने सन् ब्यालीस में शहीद होनेवाले तीन बच्चों की मूर्तियाँ स्थापित हैं...शायद बच्चों की नाक ही फिट बैठ जाए, यह सोचकर वहाँ भी पहुंचा पर...इन तीनों की नाकें भी इससे कहीं बड़ी बैठती हैं । अब बतायए, मैं क्या करूँ ?"
...राजधानी में सब तैयारियां थीं । जार्ज पंचम की लाट को मल-मलकर नहलाया गया था । रोगन लगाया गया था । सब कुछ था, सिर्फ नाक नहीं थी !
बात फिर बड़े हुक्मरानों तक पहुंची । बड़ी खलबली मची…अगर जार्ज पंचम के नाक न लग पाई, तो फिर रानी का स्वागत करने का मतलब ? यह तो अपनी नाक कटानेवाली बात हुई ।
लेकिन मूर्तिकार पैसे से लाचार था...यानी हार माननेवाला कलाकार नहीं था । एक हैरतअंगेज ख्याल उसके दिमाग में कौंधा और उसने पहली शर्त दुहराई । जिस कमरे में कमेटी बैठी हुई थी, उसके दरवाजे फिर बन्द हुए और मूर्तिकार ने अपनी नई योजना पेश की-"चूँकि नाक लगना एकदम जरुरी है, इसलिए मेरी राय है कि चालीस करोड़ में से कोई एक जिंदा नाक काटकर लगा दी जाए..."
बात के साथ ही सन्नाटा छा गया । कुछ मिनटों की खामोशी के बाद सभापति ने सबकी ओर देखा । सबको परेशान देखकर मूर्तिकार कुछ अचकचाया और धीरे-से बोला…"आप लोग क्यों घबराते हैं । यह काम मेरे ऊपर छोड़ दीजिए...नाक चुनना मेरा काम है...आपकी सिर्फ इजाजत चाहिए !"
कानाफूसी हुई और मूर्तिकार को इजाजत दे दी गई ।
अखबारों में सिर्फ इतना छपा कि नाक का मसला हल हो गया है और राजपथ पर इण्डिया गेट के पास वाली जार्ज पंचम की लाट के नाक लग रही है ।
नाक लगने से पहले फिर हथियारबंद पहरेदारों की तैनाती हुई । मूर्ति के आस-पास का तालाब सुखाकर साफ किया गया । उसकी खाद निकाली गई । और ताजा पानी डाला गया, ताकि जो जिन्दा नाक लगाई जाने वाली थी वह सूखने न पाए । इस बात की खबर औरों को नहीं थी । यह सब तैयारियां भीतर-भीतर चल रही थीं । रानी के आने का दिन नजदीक आता जा रहा था । मूर्तिकार खुद अपने बताए हल से परेशान था । जिन्दा नाक लाने के लिए उसने कमेटीवालों से कुछ और मदद मांगी । वह उसे दी गई । लेकिन इस हिदायत के साथ कि एक खास दिन हर हालत में नाक लग जाएगी।
और वह दिन आया ।
जार्ज पंचम के नाक लग गई ।
सब अखबारों ने खबरें छापीं कि जार्ज पंचम के जिंदा नाक लगाई गई है...यानी ऐसी नाक जो कतई पत्थर की नहीं लगती ।
लेकिन उस दिन के अखबारों में एक बात गौर करने की थी । उस दिन देश में कहीं भी किसी उद्घाटन की खबर नहीं थी । किसी ने कोई फीता नहीं काटा था । कोई सार्वजनिक सभा नहीं हुई थी । कहीं भी किसी का अभिनंदन नहीं हुआ था, कोई मानपत्र भेंट करने की नौबत नहीं आई थी । किसी हवाई अड्डे या स्टेशन पर स्वागत-समारोह नहीं हुआ था । किसी का ताजा चित्र नहीं छपा था । सब अखबार खाली थे ।पता नहीं ऐसा क्यों हुआ था ? नाक तो सिर्फ एक चाहिए थी और वह भी बुत के लिए ।

हिंदी पाठ्यपुस्क कृतिका -2

श्रम विभाजन और जाति-प्रथा


श्रम विभाजन और जाति-प्रथा

यह विडंबना की ही बात है, कि इस युग मे भी 'जातिवाद' के पोषकों की कमी नहीं हैं। इसके पोषक कई आधारों पर इसका समर्थन करते हैं । समर्थन का आधार  यह कहा जाता है, कि आधुनिक सभ्य समाज 'कार्य-कुशलता' के लिए  श्रम विभाजन को आवश्यक मानता है, और चूँकि जाति-प्रथा भी श्रम विभाजन का ही दूसरा रूप है इसलिए इसमें कोई बुराई नहीं है । इस तर्क के संबन्ध में पहली बात तो यही आपत्तिजनक है, कि जाति-प्रथा श्रम विभाजन के साथ -साथ श्रमिक - विभाजन का भी रूप लिए हुए है। श्रम विभाजन , निश्चय ही सभ्य समाज की आवश्यकता है, परन्तु किसी भी सभ्य समाज में श्रम विभाजन की व्यवस्था श्रमिको का विभिन्न वर्गों में अस्वाभाविक विभाजन नहीं करती । भारत की जाति-प्रथा की एक और विशेषता यह है कि यह श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन ही नहीं करती बल्कि विभाजित विभिन्न वर्गों को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच भी करार देती है, जो कि विश्व के किसी भी समाज में नहीं पाया जाता।
जाति-प्रथा को यदि श्रम विभाजन मान लिया जाए, तो यह  स्वाभाविक विभाजन नहीं है, क्योंकि यह मनुष्य की रुचि पर आधारित नहीं है। कुशल व्यक्ति या सक्षम-श्रमिक-समाज का  निर्माण करने के लिए यह आवश्यक है कि हम व्यक्तियों की क्षमता इस सीमा तक विकसित करें , जिससे वह अपना पेशा या कार्य का चुनाव स्वयं कर सके। इस सिद्धांत के विपरीत जाति-प्रथा का दूषित सिद्धांत यह है कि इससे मनुष्य के प्रशिक्षण अथवा उसकी निजी क्षमता का विचार किए  बिना, दूसरे ही दृष्टिकोण जैसे माता-पिता के सामाजिक स्तर के अनुरूप, पहले से ही अर्थात गर्भधारण के समय से ही  मनुष्य का पेशा निर्धारित कर दिया जाता है।
जाति-प्रथा पेशे क् दोषपूर्ण पूर्वनिर्धारण ही नहीं करती बल्कि मनुष्य को जीवन-भर के लिए एक पेशे में बाँध भी देती है। भले ही पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त होने के कारण वह भूखों मर जाए। आधुनिक युग में  यह स्थिति प्रायः आती है, क्योंकि उद्योग-धंधों की प्रक्रिया व तकनीक में निरंतर विकास और कभी- कभी अकस्मात परिवर्तन हो जाता है, जिसके कारण मनुष्य को अपना पेशा बदलने की आवश्यकता पड़ सकती है और यदि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मनुष्य को अपना पेशा बदलने की स्वतंत्रता न हो, तो इसके लिए भूखों मरने के अलावा क्या चारा रह जाता है? हिन्दू धर्म की जाति प्रथा किसी भी व्यक्ति को ऐसा पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती है, जो उसका पैतृक पेशा न हो , भले ही वह उसमें पारंगत हो। इस प्रकार पेशा परिवर्तन की अनुमति न देकर जाति-प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख व प्रत्यक्ष कारण बनी हुई है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि श्रम विभाजन की दृष्टि से भी जाति-प्रथा गंभीर दोषों से युक्त है। जाती-प्रथा का श्रम विभाजन मनुष्य की स्वेच्छा पर निर्भर नहीं रहता । मनुष्य की व्यक्तिगत भावना तथा व्यक्तिगत रुचि का इसमें कोई स्थान नहीं रहता । पूर्व लिख ही इसका आधार है। इस आधार पर हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि आज के उद्योगों में गरीबी  और उत्पीड़न इतनी बड़ी समस्या नही जितनी यह कि बहुत से लोग निर्धारित कार्य को अरुचि के साथ केवल विवशतावश करते हैं। ऐसी स्थिति स्वाभावतः मनुष्य को दुर्भावना से ग्रस्त रहकर टालू काम करने और कम काम करने के लिए प्रेरित करती है। ऐसी स्थिति में जहाँ काम करने वालों का न दिल लगता हो न दिमाग , कोई कुशलता कैसे प्राप्त की जा सकती है। अतः यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि आर्थिक पहलू से भी जाति-प्रथा हानिकारक प्रथा है। क्योंकि यह मनुष्य की स्वाभाविक प्रेरणारुचि व आत्म-शक्ति को दबा कर उन्हें अस्वाभाविक  नियमों में जकड़ कर निष्क्रिय बना देती है

हिंदी पाठ्यपुस्तक आरोह भाग -2

अमित सोनी


गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः । गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥










 भावार्थ :

गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है, गुरु हि शंकर है; गुरु हि साक्षात् परब्रह्म है; उन सद्गुरु को प्रणाम ।

अमित सोनी(सर) का जीवन परिचय :-
अमित सोनी नाम तो सुना होगा, एक ऐसी सख्शियत है जोकि बीकानेर के हर विद्यार्थी के दिलों में जगह बनाए हुए हैं। मैं प्रेम कुमार भी इनका शिष्य रह चुका हूँ। बीकानेर के और उसके आस पास के क्षेत्र के परीक्षार्थी उन पर पूर्ण विश्वास रखते है कि वो उन्हें उज्ज्वल भविष्य देंगे अमित सोनी सर ने जीवन में क्या-क्या महत्वपूर्ण कार्य किये है; एवं इनका अब तक का जीवन कैसा रहा यह सभी बाते आज हम इस लेख के माध्यम से आप तक पहुँचाने का प्रयास कर रहे हैं । (मुकेश भद्रवाल जी के सहयोग से)

पूरा नाम - अमित सोनी 
पेशा - शिक्षण 
जन्म तिथि - 5 अगस्त 1979
गृह नगर - बीकानेर
शैक्षणिक योग्यता - एम.कॉम, एम.ए(इतिहास)


पिता - श्री कन्हैया लाल सोनी
माता - श्रीमती पुष्पा देवी 
भाई - श्री राजेश सोनी 
बहन - श्रीमती सुनीता सोनी
पत्नी - श्रीमती संतोष सोनी
बेटे - तरुण , आयुष


शुरुआती करियर - 

1. रेलवे में 4 वर्ष तक सहायक स्टेशन मास्टर पद पर कार्यरत।
2. राज्य वाणिज्य कर विभाग में 2 वर्ष तक कनिष्ठ वाणिज्य कर अधिकारी के रूप में कार्य किया ।


वर्तमान - कई वर्षों से लगातार प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करवाते हैं इनके सानिध्य में जिसने भी शिक्षा प्राप्त की उसकी सफलता प्राप्ति के मार्ग उतने ही सरल होते गए  इनकी एक  विशेषता यह भी रही कि इन्हों अपने शुरुआती  शिक्षण से ही लगातार बहुत सारे परीक्षार्थियों को निःशुल्क पढ़ाया है जिनके पास फीस के रुपये भी नही थे । बहुत सारे विद्यार्थियों को सरकारी नोकरी दिलाने में इन्ही का हाथ है । ऐसा कोई विभाग नहीं जहाँ इनका विद्यार्थी पदस्थापित ना हो । थर्ड ग्रेड से लेकर आईएएस तक इनके स्टूडेंट उपस्थित है ।


ज्योतिबा फुले


नाम : महात्मा जोतिराव गोविंदराव फुले
जन्म
 : 11 अप्रैल 1827 पुणे
पिता
 : गोविंदराव फुले
माता
 : विमला बाई
विवाह
 : सावित्रीबाई फुले

        महात्मा ज्योतिबा फुले (ज्योतिराव गोविंदराव फुले) को 19वी. सदी का प्रमुख समाज सेवक माना जाता है. उन्होंने भारतीय समाज में फैली अनेक कुरूतियों को दूर करने के लिए सतत संघर्ष किया. अछुतोद्वार, नारी-शिक्षा, विधवा – विवाह और किसानो के हित के लिए ज्योतिबा ने उल्लेखनीय कार्य किया है.


आरंभिक जीवन :

        उनका जन्म 11 अप्रैल  1827  को सतारा महाराष्ट्र , में हुआ था. उनका परिवार बेहद गरीब था और जीवन-यापन के लिए बाग़-बगीचों में माली का काम करता था. ज्योतिबा जब मात्र  एक वर्ष के थे तभी उनकी माता का निधन हो गया था. ज्योतिबा का लालन – पालन सगुनाबाई नामक एक दाई ने किया. सगुनाबाई ने ही उन्हें माँ की ममता और दुलार दिया. 7 वर्ष की आयु में ज्योतिबा को गांव के स्कूल में पढ़ने भेजा गया.

        जातिगत भेद-भाव के कारण उन्हें विद्यालय छोड़ना पड़ा. स्कूल छोड़ने के बाद भी उनमे पढ़ने की ललक बनी रही. सगुनाबाई ने बालक ज्योतिबा को घर में ही पढ़ने में मदद की. घरेलु कार्यो के बाद जो समय बचता उसमे वह किताबें पढ़ते थे. ज्योतिबा  पास-पड़ोस के बुजुर्गो से विभिन्न विषयों में चर्चा करते थे. लोग उनकी सूक्ष्म और तर्क संगत बातों से बहुत प्रभावित होते थे.

        उन्‍होंने विधवाओं और महिलाओं के कल्याण के लिए काफी काम किया। उन्होंने इसके साथ ही किसानों की हालत सुधारने और उनके कल्याण के लिए भी काफी प्रयास किये। स्त्रियों की दशा सुधारने और उनकी शिक्षा के लिए ज्योतिबा ने 1848 में एक स्कूल खोला। यह इस काम के लिए देश में पहला विद्यालय था।

        लड़कियों को पढ़ाने के लिए अध्यापिका नहीं मिली तो उन्होंने कुछ दिन स्वयं यह काम करके अपनी पत्नी सावित्री को इस योग्य बना दिया। उच्च वर्ग के लोगों ने आरंभ से ही उनके काम में बाधा डालने की चेष्टा की, किंतु जब फुले आगे बढ़ते ही गए तो उनके पिता पर दबाब डालकर पति-पत्नी को घर से निकालवा दिया इससे कुछ समय के लिए उनका काम रुका अवश्य, पर शीघ्र ही उन्होंने एक के बाद एक बालिकाओं के तीन स्कूल खोल दिए।

        पेशवाई के अस्त के बाद अंग्रेजी हुकूमत की वजह से हुये बदलाव के इ.स. 1840 के बाद दृश्य स्वरूप आया. हिंदू समाज के सामाजिक रूढी, परंपरा के खिलाफ बहोत से सुधारक आवाज उठाने लगे. इन सुधारको ने स्त्री शिक्षण, विधवा विवाह, पुनर्विवाह, संमतीवय, बालविवाह आदी. सामाजिक विषयो पर लोगों को जगाने की कोशिश की. लेकीन उन्नीसवी सदिके ये सुधारक ‘हिंदू परंपरा’ के वर्ग में अपनी भूमिका रखते थे. और समाजसुधारणा की कोशिश करते थे.
      
        महात्मा जोतिराव फुले इन्होंने भारत के इस सामाजिक आंदोलन से महराष्ट्र में नई दिशा दी. उन्होंने वर्णसंस्था और जातीसंस्था ये शोषण की व्यवस्था है और जब तक इनका पूरी तरह से ख़त्म नहीं होता तब तक एक समाज की निर्मिती असंभव है ऐसी स्पष्ट भूमिका रखी. ऐसी भूमिका लेनेवाले वो पहले भारतीय थे. जातीव्यवस्था निर्मूलन के कल्पना और आंदोलन के उसी वजह से वो जनक साबीत हुये.

        महात्मा फुले इन्होंने अछूत स्त्रीयों और मेहनत करने वाले लोग इनके बाजु में जितनी कोशिश की जा सकती थी उतनी कोशिश जिंदगीभर फुले ने की है. उन्होंने सामाजिक परिवर्तन, ब्रम्ह्नोत्तर आंदोलन, बहुजन समाज को आत्मसन्मान देणे की, किसानो के अधिकार की ऐसी बहोतसी लढाई यों को प्रारंभ किया. सत्यशोधक समाज ये भारतीय सामाजिक क्रांती के लिये कोशिश करनेवाली अग्रणी संस्था बनी.

        महात्मा फुले ने लोकमान्य टिळक , आगरकर, न्या. रानडे, दयानंद सरस्वती इनके साथ देश की राजनीती और समाजकारण आगे ले जाने की कोशिश की. जब उन्हें लगा की इन लोगों की भूमिका अछूत को न्याय देने वाली नहीं है. तब उन्होंने उनपर टिका भी की. यही नियम ब्रिटिश सरकार और राष्ट्रीय सभा और कॉग्रेस के लिये भी लगाया हुवा दिखता है.

        महात्मा फुले ने अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले को पढ़ने के बाद उन्होंने पुणे में लडकियों के लिए भारत की पहली पाठ शाला खोली | 24 सितंबर 1873 को उन्होंने सत्य शोधक समाज की स्थापना की | वह इस संस्था के पहले कार्यकारी व्यवस्थापक तथा कोषपाल भी थे |इस संस्था का मुख्य  उद्देश्य समाज में शुद्रो पर हो रहे शोषण तथा दुर्व्यवहार पर अंकुश लगाना था |

        महात्मा फुले अंग्रेजी राज के बारे में एक सकारात्मक दृष्टिकोण रखते थे क्युकी अंग्रेजी राज की वजह से भारत में न्याय और सामाजिक समानता के नए बिज बोए जा रहे थे | महात्मा फुले ने अपने जीवन में हमेशा बड़ी ही प्रबलता तथा तीव्रता से विधवा विवाह की वकालत की | उन्होंने उच्च जाती की विधवाओ के लिए  एक घर भी बनवाया था |  दुसरो के सामने आदर्श रखने के लिए उन्होंने अपने खुद के घर के दरवाजे सभी जाती तथा वर्गों के लोगो के लिए हमेशा खुले रखे.

        ज्योतिबा मैट्रिक पास थे और उनके घर वाले चाहते थे कि वो अच्छे वेतन पर सरकारी कर्मचारी बन जाए लेकिन ज्योतिबा ने अपना सारा जीवन दलितों की सेवा में बिताने का निश्चय किया था | उन दिनों में स्त्रियों की स्तिथि बहुत खराब थी क्योंक घर के कामो तक ही उनका दायरा था | बचपन में शादी हो जाने के कारण स्त्रियों के पढने लिखने का तो सवाल ही पैदा नही होता था | दुर्भाग्य से अगर कोई बचपन में ही विधवा हो जाती थी तो उसके साथ बड़ा अन्याय होता था | तब उन्होंने सोचा कि यदि भावी पीढ़ी का निर्माण करने वाली माताए ही अंधकार में डूबी रहेगी तो देश का क्या होगा और उन्होंने माताओं के पढने पर जोर दिया था |

        उन्होंने विधवाओ और महिला कल्याण के लिए काफी काम किया था | उन्होंने किसानो की हालत सुधारने और उनके कल्याण के भी काफी प्रयास किये थे | स्त्रियों की दशा सुधारने और उनकी शिक्षा क्व लिये ज्योतिबा और उनकी पत्नी ने मिलकर 1848 में स्कूल खोला जो देश का पहला महिला विद्यालय था | उस दौर में लडकियों को पढ़ाने के लिए अध्यापिका नही मिली तो उन्होंने अपनी पत्नी सावित्रीबाई को पढाना शुरू कर दिया और उनको इतना योग्य बना दिया कि वो स्कूल में बच्चो को पढ़ा सके |

        ज्योतिबा यह जानते थे कि देश व समाज की वास्तविक उन्नति तब तक नहीं हो सकती, जब तक देश का बच्चा-बच्चा जाति-पांति के बन्धनों से मुक्त नहीं हो पाता, साथ ही देश की नारियां समाज के प्रत्येक क्षेत्र में समान अधिकार नहीं पा लेतीं । उन्होंने तत्कालीन समय में भारतीय नवयुवकों का आवाहन किया कि वे देश, समाज, संस्कृति को सामाजिक बुराइयों तथा अशिक्षा से मुक्त करें और एक स्वस्थ, सुन्दर सुदृढ़ समाज का निर्माण करें । मनुष्य के लिए समाज सेवा से बढ़कर कोई धर्म नहीं है । इससे अच्छी ईश्वर सेवा कोई नहीं । महाराष्ट्र में सामाजिक सुधार के पिता समझे जाने वाले महात्मा फूले ने आजीवन सामाजिक सुधार हेतु कार्य किया । वे पढ़ने-लिखने को कुलीन लोगों की बपौती नहीं मानते थे । मानव-मानव के बीच का भेद उन्हें असहनीय लगता था ।

        दलितों और निर्बल वर्ग को न्याय दिलाने के लिए ज्योतिबा ने 'सत्यशोधक समाज' स्थापित किया। उनकी समाजसेवा देखकर 1888 ई. में मुंबई की एक विशाल सभा में उन्हें 'महात्मा' की उपाधि दी। ज्योतिबा ने ब्राह्मण-पुरोहित के बिना ही विवाह-संस्कार आरंभ कराया और इसे मुंबई हाईकोर्ट से भी मान्यता मिली। वे बाल-विवाह विरोधी और विधवा-विवाह के समर्थक थे। वे लोकमान्य के प्रशंसकों में थे।


कार्य और सामाजिक सुधार :

• इनका सबसे पहला और महत्वपूर्ण कार्य महिलाओं की शिक्षा के लिये था; और इनकी पहली अनुयायी खुद इनकी पत्नी थी जो हमेशा अपने सपनों को बाँटती थी तथा पूरे जीवन भर उनका साथ दिया।
• 
अपनी कल्पनाओं और आकांक्षाओं के एक न्याय संगत और एक समान समाज बनाने के लिये 1848 में ज्योतिबा ने लड़कियों के लिये एक स्कूल खोला; ये देश का पहला लड़कियों के लिये विद्यालय था। उनकी पत्नी सावित्रीबाई वहाँ अध्यापान का कार्य करती थी। लेकिन लड़कियों को शिक्षित करने के प्रयास में, एक उच्च असोचनीय घटना हुई उस समय, ज्योतिबा को अपना घर छोड़ने के लिये मजबूर किया गया। हालाँकि इस तरह के दबाव और धमकियों के बावजूद भी वो अपने लक्ष्य से नहीं भटके और सामाजिक बुराईयों के खिलाफ लड़ते रहे और इसके खिलाफ लोगों में चेतना फैलाते रहे।
• 
1851 में इन्होंने बड़ा और बेहतर स्कूल शुरु किया जो बहुत प्रसिद्ध हुआ। वहाँ जाति, धर्म तथा पंथ के आधार पर कोई भेदभाव नहीं था और उसके दरवाजे सभी के लिये खुले थे।
• 
ज्योतिबा फुले बाल विवाह के खिलाफ थे साथ ही विधवा विवाह के समर्थक भी थे; वे ऐसी महिलाओं से बहुत सहानुभूति रखते थे जो शोषण का शिकार हुई हो या किसी कारणवश परेशान हो इसलिये उन्होंने ऐसी महिलाओं के लिये अपने घर के दरवाजे खुले रखे थे जहाँ उनकी देखभाल हो सके।

मृत्यु :

        ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले के कोई संतान नहीं थी इसलिए उन्होंने एक विधवा के बच्चे को गोद लिया था | यह बच्चा बड़ा होकर एक Doctor बना और इसने भी अपने माता पिता के समाज सेवा के कार्यों को आगे बढ़ाया | मानवता की भलाई के लिए किये गए ज्योतिबा के इन निश्वार्थ कार्यों के कारण May 1988 में उस समय के एक और महान समाज सुधारक “राव बहादुर विट्ठलराव कृष्णाजी वान्देकर” ने उन्हें “महात्मा” की उपाधी प्रदान की | July 1988 में उन्हें लकवे का Attack आ गया | जिसकी वजह से उनका शरीर कमजोर होता जा रहा था लेकिन उनका जोश और मन कभी कमजोर नही हुआ था |

        27 नवम्बर 1890 को उन्होंने अपने सभी हितैषियो को बुलाया और कहा कि “अब मेरे जाने का समय आ गया है, मैंने जीवन में जिन जिन कार्यो को हाथ में लिया है उसे पूरा किया है, मेरी पत्नी सावित्री ने हरदम परछाई की तरह मेरा साथ दिया है और मेरा पुत्र यशवंत अभी छोटा है और मै इन दोनों को आपके हवाले करता हूँ |” इतना कहते ही उनकी आँखों से आसू आ गये और उनकी पत्नी ने उन्हें सम्भाला | 28 नवम्बर 1890 को ज्योतिबा फुले ने देह त्याग दिया और एक महान समाजसेवी इस दुनिया से विदा हो गया |

नागार्जुन


नागार्जुन का जीवन परिचय -: नागार्जुन का जन्म 1911 ई. को बिहार के सतलखा में हुआ था। इनके पिता का नाम गोकुल मिश्र और माता का नाम उमा देवी था। बाद में नामकरण के बाद इनका नाम वैद्यनाथ मिश्र रखा गया। छह वर्ष की आयु में ही इनकी माता का देहांत हो गया। इनके पिता इन्हे कंधे पर बैठाकर अपने संबंधियों के यहाँ, एक गाँव से दूसरे गाँव आया-जाया करते थे। इस प्रकार बचपन में ही इन्हें पिता की लाचारी के कारण घूमने की आदत पड़ गयी और बड़े होकर यह घूमना उनके जीवन का स्वाभाविक अंग बन गया।

यह दंतुरित मुसकान कविता का सारांश- यह दंतुरित मुसकान कविता में कवि ने एक बच्चे की मुस्कान का बड़ा ही मनमोहक चित्रण किया है। कवि के अनुसार बच्चे की मुस्कान में इतनी शक्ति होती है कि वह किसी मुर्दे में भी जान डाल सकती है। कवि के अनुसार एक बच्चे की मुस्कान को देखकर, हम अपने सब दुःख भूल जाते हैं और हमारा अन्तःमन प्रसन्न हो जाता है। बच्चे को धूल में लिपटा घर के आँगन में खेलता देखकर कवि को ऐसा प्रतीत होता है, मानो किसी झोंपड़ी में कमल खिला हो। कवि ने यहाँ बाल अवस्था में एक बालक द्वारा की जाने वाली नटखट और प्यारी हरकतों का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है। जैसे जब कोई बालक किसी व्यक्ति को नहीं पहचानता है, तो उसे सीधी नज़रों से नहीं देखता, लेकिन एक बार पहचान लेने के बाद वो उसे टकटकी लगाकर देखता रहता है।

नागार्जुन यह दंतुरित मुस्कान भावार्थ-

तुम्हारी यह दंतुरित मुसकान       
मृतक में भी डाल देगी जान
धूलि-धूसर तुम्हारे ये गात….
छोड़कर तालाब मेरी झोंपड़ी में खिल रहे जलजात
परस पाकर तुम्हारा ही प्राण,
पिघलकर जल बन गया होगा कठिन पाषाण
छू गया तुमसे कि झरने लग पड़े शेफालिका के फूल
बाँस था कि बबूल?


भावार्थ :- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने एक दांत निकलते बच्चे की मधुर मुस्कान का मन मोह लेने वाला वर्णन किया है। कवि के अनुसार एक बच्चे की मुस्कान मृत आदमी को भी ज़िन्दा कर सकती है। अर्थात कोई उदास एवं निराश आदमी भी अपना गम भूलकर मुस्कुराने लगे। बच्चे घर के आँगन में खेलते वक्त खुद को गन्दा कर लेते हैं, धूल से सन जाते हैं, उनके गालों पर भी धूल लग जाती है।
कवि को यह दृश्य देखकर ऐसा लगता है, मानो किसी तालाब से चलकर कमल का फूल उनकी झोंपड़ी में खिला हुआ है। कवि को ऐसा प्रतीत हो रहा है कि अगर यह बालक किसी पत्थर को छू ले, तो वह भी पिघलकर जल बन जाए और बहने लगे। अगर वो किसी पेड़ को छू ले, फिर चाहे वो बांस हो या फिर बबूल, उससे शेफालिका के फूल ही झरेंगे।
अर्थात बच्चे के समक्ष कोई कोमल हृदय वाला इंसान हो, या फिर पत्थरदिल लोग। सभी अपने आप को बच्चे को सौंप देते हैं और वह जो करवाना चाहता है, वो करते हैं एवं उसके साथ खेलते हैं।

तुम मुझे पाए नहीं पहचान?
देखते ही रहोगे अनिमेष!
थक गए हो?
आँख लूँ मैं फेर?
क्या हुआ यदि हो सके परिचित न पहली बार?
यदि तुम्हारी माँ न माध्यम बनी होती आज
मैं न सकता देख
मैं न पाता जान
तुम्हारी यह दंतुरित मुसकान

भावार्थ :-  शिशु जब पहली बार कवि को देखता है, तो वह उसे पहचान नहीं पाता और कवि को एकटक बिना पलक झपकाए देखने लगता है। कुछ समय तक देखने के पश्चात् कवि कहता है – क्या तुम मुझे पहचान नहीं पाए हो? कितने देर तुम इस प्रकार बिना पलक झपकाए एकटक मुझे देखते रहोगे? कहीं तुम थक तो नहीं गए मुझे इस तरह देखते देखते? अगर तुम थक गए हो, तो मैं अपनी आँख फेर लेता हूँ, फिर तुम आराम कर सकते हो।
अगर हम इस मुलाकात में एक-दूसरे को पहचान नहीं पाए तो कोई बात नहीं। तुम्हारी माँ हमें मिला देगी और फिर मैं तुम्हें जी भर देख सकता हूँ। तुम्हारे मुख मंडल को निहार सकता हूँ। तुम्हारी इस दंतुरित मुस्कान का आनंद ले सकता हूँ।

धन्य तुम, माँ भी तुम्हारी धन्य!
चिर प्रवासी मैं इतर, मैं अन्य!
इस अतिथि से प्रिय तुम्हारा क्या रहा संपर्क
उँगलियाँ माँ की कराती रही हैं मधुपर्क
देखते तुम इधर कनखी मार
और होतीं जब कि आँखें चार
तब तुम्हारी दंतुरित मुसकान
मुझे लगती बड़ी ही छविमान!

भावार्थ :- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि अपने पुत्र के बारे में बताता है कि उसके नए-नए दांत निकलना शुरु हुए हैं। कवि बहुत दिनों बाद अपने घर वापस लौटा है, इसलिए उसका पुत्र उसे पहचान नहीं पा रहा। आगे कवि लिखते हैं कि बालक तो अपनी मनमोहक छवि के कारण धन्य है ही और उसके साथ उसकी माँ भी धन्य है, जिसने उसे जन्म दिया।
आगे कवि कहते हैं कि तुम्हारी माँ रोज तुम्हारे दर्शन का लाभ उठा रही है। एक तरफ मैं दूर रहने के कारण तुम्हारे दर्शन भी नहीं कर पाता और अब तुम्हें पराया भी लग रहा हूँ। एक तरह से यह ठीक भी है, क्योंकि मुझसे तुम्हारा संपर्क ही कितना है। यह तो तुम्हारी माँ की उँगलियाँ ही हैं, जो तुम्हें रोज मधुर-स्वादिष्ट भोजन कराती है। इस तरह तिरछी नज़रों से देखते-देखते जब हमारी आँख एक-दूसरे से मिलती है, मेरी आँखों में स्नेह देखकर तुम मुस्कुराने लगते हो।  यह मेरे मन को मोह लेता है।





फसल कविता का सारांश-



फसल कविता में कवि ने किसानों के परिश्रम एवं प्रकृति की महानता का गुणगान किया है। उनके अनुसार फसल पैदा करना किसी एक व्यक्ति के बस की बात नहीं। इसमें प्रकृति एवं मनुष्य दोनों का तालमेल लगता है। बीज को अंकुरित होने के लिए धूप, वायु, जल, मिट्टी एवं मनुष्य के कठोर परिश्रम की ज़रूरत पड़ती है। तब जाकर फसल पैदा होती है।


एक के नहीं,
दो के नहीं,
ढेर सारी नदियों के पानी का जादू :
एक के नहीं,
दो के नहीं,
लाख-लाख कोटि-कोटि हाथों के स्पर्श की गरिमा:
एक की नहीं,
दो की नहीं,
हजार-हजार खेतों की मिट्टी का गुण धर्म:

भावार्थ :- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने हमें यह बताने का प्रयास किया है कि फसल किसी एक व्यक्ति के परिश्रम या फिर केवल जल या मिट्टी से नहीं उगती है। इसके लिए बहुत अनुकूल वातावरण की जरूरत होती है।  इसी के बारे में आगे लिखते हुए कवि ने कहा है कि एक नहीं दो नहीं, लाखों-लाखों नदी के पानी के मिलने से यह फसल पैदा होती है।
किसी एक नदी में केवल एक ही प्रकार के गुण होते हैं, लेकिन जब कई तरह की नदियां आपस में मिलती हैं, तो उनमें सारे गुण आ जाते हैं, जो बीजों को अंकुरित होने में सहायता करते हैं और फसल खिल उठती है। ठीक इसी प्रकार, केवल एक या दो नहीं, बल्कि हज़ारों-लाखों लोगों की मेहनत और पसीने से यह धरती उपजाऊ बनती है और उसमे बोए गए बीज अंकुरित होते हैं। खेतों में केवल एक खेत की मिट्टी नहीं बल्कि कई खेतों की मिट्टी मिलती है, तब जाकर वह उपजाऊ बनते हैं।

फसल क्या है?
और तो कुछ नहीं है वह
नदियों के पानी का जादू है वह
हाथों के स्पर्श की महिमा है
भूरी-काली-संदली मिट्टी का गुण धर्म है
रूपांतर है सूरज की किरणों का
सिमटा हुआ संकोच है हवा की थिरकन का!

भावार्थ :- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि हमसे यह प्रश्न करता है कि यह फसल क्या है? अर्थात यह कहाँ से और कैसे पैदा होती है? इसके बाद कवि खुद इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि फसल और कुछ नहीं बल्कि नदियों के पानी का जादू है। किसानों के हाथों के स्पर्श की महिमा है। यह मिट्टियों का ऐसा गुण है, जो उसे सोने से भी ज्यादा मूल्यवान बना देती है। यह सूरज की किरणों एवं हवा का उपकार है। जिनके कारण यह फसल पैदा होती है।
अपनी इन पंक्तियों में कवि ने हमें यह बताने का प्रयास किया है कि फसल कैसे पैदा होती है? हम इसी अनाज के कारण ज़िन्दा हैं, तो हमें यह ज़रूर पता होना चाहिए कि आखिर इन फ़सलों को पैदा करने में नदी, आकाश, हवा, पानी, मिट्टी एवं किसान के परिश्रम की जरूरत पड़ती है। जिससे हमें उनके महत्व का ज्ञान हो।